योगिराज श्रीकृष्ण के चरित्र से खेलते माखनचोर और रासलीला रचैया बताने वाले
ओ3म। श्रीकृष्ण का नाम आते ही लोगों के जेहन में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का खुशियों भरा पर्व आ जाता है,क्योंकि उस समय चहुंओर संकट और सबलों के अत्याचार से त्राहिमाम करते लोगों को किसी महान आत्मा की आवश्यकता थी और वह महान आत्मा के रूप में श्रीकृष्ण ने जन्म लिया। उस समय विश्व के एकमात्र पूर्ण ज्ञानी,विवेकी,तपस्वी,योगिराज,कर्मयोगी थे श्रीकृष्ण। महाभारत और उससे पूर्व के ग्रंथों में मर्यादापूर्ण पुरुषोत्तम के रूप में श्रीकृष्ण को जाना जाता था। उसके बाद भागवत सहित अन्य नौ ग्रंथों में श्रीकृष्ण के चरित्रहनन की बाल लीलाएं,रास लीलाएंं, चीरहरण आदि की कवियों की कपोल कल्पित कहानियों ने सम्पूर्ण इतिहास का ही नाश कर दिया।
युगपुरुष महायोगी श्रीकृष्ण को एक माखनचोर,व्यभिचारी,विश्वासघाती,अवसरवादी सहित अनेक लांछनों से कलंकित कर दिया। ये सारी बातें आज हल्के-फुल्के मनोरंजन के साधन एवं धर्म की आड़ में व्यवसाय करने वालों ने अल्पशिक्षित व अशिक्षितों के बीच ऐसी फैला दीं कि मानों यही सत्य धर्म है। इन सबकी विवेचनाएं करने के लिए हम आगे बढ़ते हैं।
कहते हैं कि बचपन में श्रीकृष्ण घर-घर जाकर माखन चुराया करते थे और गोपिकाओं को परेशान किया करते थे। नन्द शब्द किसी का नाम नहीं है बल्कि यह सम्मानित शब्द उस व्यक्ति के नाम के आगे लगाया जाता है जिसके पास एक लाख गायें हों। अब सवाल उठता है कि जिसके घर में एक लाख गायें हों और दूध-दही व माखन की नदियां बह रहीं हों वो क्यों दूसरे के घर माखन चुराकर बाललीला करेंगा। क्या बाल लीला करने के लिए सिर्फ यही एक कार्य बचा था। आतताई कंस को मारने के लिए श्रीकृष्ण ने जिस तरह से तपस्या कर योग साधना की थी उसका जिक्र कहीं नहीं मिलता। कंस जैसा बलशाली और मल्लयुद्ध का बहुत बड़ा योद्धा था। यह तो सभी जानते हैं । मेरा मानना है कि उस समय कंस के मन भी यही होगा कि यह छोकरा मुझे क्या मार सकेगा। लेकिन उसे क्या मालूम कि योग साधना से श्रीकृष्ण ने बल के साथ मस्तिष्क का विकास कंस से अधिक कर लिया था और उसी बल से कंस का वध कर सके।सबसे पहले राधा का वर्णन आता है। महाभारत काल में किसी भी ऐसी राधा का जिक्र नहीं है । एक राधा अवश्य ही महाभारत में आई, वह कर्ण का पालन करने वाली अधिरथ की पत्नी थी।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युथानं धर्मस्य तदात्मानंसृजाम्यहम।।
श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि जब-जब धर्म का लोप होता है तब-तब मैं शरीर धारण करता हूं। इस परिप्रेक्ष्य में
महर्षि दयानंद रचित सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में कहा गया है कि वेद विरुद्ध होने से यह प्रमाण नहीं है और ऐसा हो सकता है कि श्रीकृष्ण धर्मात्मा और धर्म की रक्षा करना चाहते थे कि मैं युग-युग में जन्म लेकर श्रेष्ठों की रक्षा और दुष्टों का नाश करूं, तो इसमें कुछ भी दोष नहीं है क्योंकि
'परोपकाराय सतां विभूतय: परोपकार के लिए सत्पुरुषों का तन-मन-धन होता है तथापि श्रीकृष्ण को इस बात को लेकर ईश्वर नहीं माना जा सकता। एक अन्य प्रश्न कि संसार में 24 अवतार हुए हैं और इनको अवतार क्यों माना जाता है। सत्यार्थ प्रकाश में स्पष्ट है कि वेदार्थ न जानने वाले संप्रदायी लोगों के बहकाने और अपने आप अविद्वान होने से भ्रमजाल में फंस के ऐसी ऐसी अप्रमाणिक बातें करते हैं और मानते हैं। इस पर एक प्रश्न यह कि ईश्वर अवतार न लेवे तो कंस-रावणादि दुष्टों का नाश कैसे हो? के जवाब मे सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि जो ईश्वर अवतार या शरीर धारण किए बिना ही जगत की उत्पत्ति,स्थिति, प्रलय करता है। उसके सामने कंस और रावणादि कीट के समान भी नहीं हैं। वह सर्वव्यापक होने से कंस और रावणादि के शरीर में भी परिपूर्ण हो रहा है। जब चाहे उसी समय मर्मच्छेदन करके नाश कर सकता है। भला इस अनन्तगुण वाले परमात्मा को एक छुद्र जीव को मारने के लिए जन्ममरण युक्त शरीर को धारण करने की क्या आवश्यका। इसलिए ईश्वर इस सृष्टि में
'न भूतो न भविष्यति है।
खण्ड-खण्ड भारत को महाभारत बनाने को
महाभारत का युद्ध क्यों जरूरी था और श्री कृष्ण क्यों ऐसा चाहते थे। इस पर विचार करने के लिए एक वृत्तांत पर नजर डालते हैं। स्वामी समर्पणानंद सरस्वती द्वारा रचित श्रीमदभागवत गीता,समर्पण भाष्य में स्पष्ट लिखा है कि कंस वध के बाद प्रजा ने श्रीकृष्ण से आग्रह किया कि आपने हमें कंस के अत्याचारों से मुक्त कराया है। अत: आप ही इस राज्य को संभालों। इस पर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि राज्य तो नानाजी संभालेंगे और हम खोया हुआ राज्य वापस लेने के लिए जा रहे हैं। उस समय श्रीकृष्ण ने निश्चय किया कि आज महाभारत खण्ड-खण्ड है। महाभारत तो एक ओर भारत के सैकड़ों छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया है। मैं खण्ड-खण्ड भारत को भारत और भारत को महाभारत फिर से बनाकर रहूंगा। धरत पर धर्म का एकछत्र राज्य होगा और राजा धार्मिक होगा और प्रजा भी धर्मात्मा होगी।
विवाह के तत्काल बाद ब्रह्मचर्य व्रत
महायोगी, योगिराज श्रीकृष्ण ने मथुरा से निकलकर उज्जयिनी में सांदीपनि ऋषि के आश्रम में पहले विद्या का राज्य प्राप्त किया और साथ ही चरित्र का राज्य प्राप्त किया। बह्मचर्य की समाप्ति पर वीरोचित मार्ग से रुक्मिणी से विवाह किया किन्तु उत्तम संतान की अभिलाषा से पति-पत्नी दोनों ब्रह्मचर्य का व्रत लिया। प्रात:काल ही हिमालय की ओर चल पड़े। जिस स्थान पर आज बदरीनाथ धाम है, वहां 12 वर्ष तक घोर ब्रह्मचर्य का पालन किया। बारहवें वर्ष केवल बेर खाकर जीवन बिताया। इसलिय कृष्ण बदरी नाथ और इस स्थान का नाम बदरीनाथ धाम पड़ा।
राधा कौन थी?
स्वामी समर्पणानंद सरस्वती द्वारा रचित श्रीमदभागवत गीता,समर्पण भाष्य में स्पष्ट लिखा है कि कंस भारत में गोहत्या का आदि प्रवर्तक था। ससुराल में नरबलि होती थी। जरासंध ने 100 राजाओं का सिर काट कर शिवजी पर चढ़ाने का संकल्प लिया था और 86 राजा इकट्ठा भी कर लिए थे। उसे क्या पता था कि क्षत्रिय शिरोमणि श्रीकृष्ण बड़ी आसानी से मरवा देंगे। कंस के मंत्री कहते है कि हे राजन देव यज्ञों के सहारे जीते हैं और यज्ञ गो-ब्राह्मण के सहारे। इसलिए सब उपायों से सत्यवादी ब्राह्मणों और गायों इन दोंनो को मारें। गो हत्या का सबसे अधिक प्रभाव निश्चित रूप से गोपालों पर पड़ा। इनमें से एक गोपाल रायणा बहुत ही बुद्धिमान था। उसने विद्रोह का बीज बोया था। राधा नाम की गुप्त मंडली बनी। जो प्रत्यक्ष में नाच-गाकर प्रभु आराधना करती थी परन्तु वास्तव में वह कंस के विरुद्ध विद्रोह की तैयारी करती थी। बालक श्रीकृष्ण भी इस मण्डली में आते जाते थे। रायणा बालक श्रीकृष्ण के मामा थे, वे मा यशोदा के रिश्ते में भाई होते थे। यद्यपि कृष्ण की आयु छोटी थी लेकिन विलक्षण प्रतिभा देखकर रायणा ने मरते समय इस राधिका मण्डली का नेतृत्व श्रीकृष्ण को सौंप दिया । इसी मण्डली के चलते ही श्रीकृष्ण ने अपने मामा कंस का वध कर दिया। इस घटना को लेकर ब्रह्मवैवर्त पुराण में राधाकृष्ण नाम से श्रीकृष्ण के चरित्र का हनन किया गया उसे बताते ही लाज आती है। दुखद स्थिति यह है आज इसी को धर्म माना जा रहा है।
कैसे कलंकित किया गया
वेदों के अनुसार उस व्यक्ति के नाम के पूर्व 108 जैसे सम्माननीय शब्द को जोड़ा जाता है, जिसने पहले 24 वर्ष,फिर उसके बाद 36 वर्ष और तत्पश्चात 48 वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य का पालन किया हो। श्रीकृष्ण की आयु विवाह के समय 36 वर्ष बताई जाती है। उत्तम संतान की कामना से उन्होंने 12 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन किया। इस प्रकार वह 108 योगिराज कहलाए। ऐसे महापुरुष को दस वर्ष की आयु में चीरहरण करने वाला और 16 हजार 108 गोपिकाओं के संग रास रचाने वाला बताकर इतिहास को कलंकित कर डाला। इस पर देश ही नहंीं बल्कि विदेशियों ने भी उंगली उठाई। हमें आज यह सब वर्णन करते शर्म आती है कि चंद लोगों ने अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए महामानव योगीराज श्रीकृष्ण को कहां से कहां गिरा दिया। जहां तक श्रीकृष्ण के प्रेम का जिक्र तो सुदामा उद्धार, विदुर के घर भोजन, द्रोपदी की मदद जैसी घटनाएं अवश्य ही महाभारत में आईं हैं।
सामान्यतया कृष्ण चरित्र का उल्लेख ब्रह्म,पदम,विष्णु,वायु,भागवत, ब्रह्मवैवर्त,स्कन्द,वामन और कूर्म इन 7 पुराणों में मिलता है। जैसा विस्तार ब्रह्म,विष्णु,भागवत और ब्रह्मवैवर्त में है उतना अन्य पुराणों में नहीं है। इस पौराणिक वर्णन में न तो महाभारत के कृष्ण की राजनैतिक विलक्षणता का ही उल्लेख हुआ है और न उसकी चारित्रिक महत्ता,ओजस्विता और उदात्तता का। पुराणकार की दृष्टि में कृष्ण की वात्सल्य और श्रंगार लीलाओं के चित्रण की ओर ही विशेष रूप से उन्मुख हुए हैं। जब कृष्ण को ईश्वर मानकर उसके दिव्य अवतार की उपासना देश में प्रचलित हुई तो कृष्णोपासना के आधार पर अनेक सम्प्रदाय स्थापित हो गए। पांचरात्र, भागवत,वासुदेव,माध्व,निम्बार्क,वल्लभ सम्प्रदाय प्रमुख थे। इन सम्प्रदायों के जन्म से पूर्व तक कृष्ण आदर्श चरित्रवान परम सात्विक आचार सम्पन्न और प्रतिभाशाली महापुरुष समझे जाते थे। परन्तु तांत्रिक साधना के प्रचार के कारण वैष्णव सम्प्रदायों मं भी वासनामूलक श्रंगार का मिश्रण होने लगा। महाभारत के कृष्ण जहां मर्यादापोषक, संयमी और सत्वगुण सम्पन्न हैं। वहां पुराणों,काव्यग्रंथों एवं अन्य साम्प्रदायिक गंन्थ में उनके जीवन को अत्यन्त विलासितापूर्ण, स्थूल वासनायुक्त और रोमांटिक बनाने का प्रयत्न किया गया।
श्रीमदभागवत के रासपंचाध्यायी दशम स्कन्द के 19-33 अध्याय में गोपी प्रसंग और कुब्जा लीला का जिस तरह का भोंडा प्रदर्शन किया गया है उसका वर्णन करने में लाज आती है। इसी प्रकार इसी स्कन्द के अ.90 श्लोक 29 तथा 31 में श्रीकृष्ण की 16108 पत्नियां और प्रत्येक के दस-दस पुत्र उत्पन्न बता कर इस महात्मा के चरित्र को कलंकित किया गया है।
इस का जिक्र करता यह श्लोक
आस्थितस्य परधर्म कृष्णस्य गृहमेधिनाम।
आसनसषोडस साहस्रं महिष्योष्ट शताधिकम।।
एकैकस्या दशदश कृष्णोअजीजनदात्मजान।
यावंत्य आत्मनो भार्या अमोघ रति ईश्वर:।।
राधा-कृष्ण की लीला का वर्णन भी भागवत में कहीं भी नहीं है। भागवत को वैष्णव लोग पंचम वेद कहते हैं। उसमें राधा का उल्लेख न होना एक विचित्र घटना है। इसी भांति विष्णु और हरिवंश पुराण मं राधा का संकेत मात्र से भी नाम नहीं आता है। श्रीकृष्ण की इस तथाकथित प्रेयसी राधा का महाभारत में भी कहीं पता नहीं है। केवल ब्रह्मवैवर्त पुराण में राधा का जिक्र होता है। उसमें कृष्ण के बारे में जो कलंकित चित्रण किया गया है, उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। विभिन्न मत-मतांतरों के लोगों ने अपनी गलतियों पर पर्दा डालने के लिए कृष्णवतार को ही कलंकित कर डाला। इन तथाकथित दुराचारी गुरुओं ने धर्म और ईश्वर की आड़ में ऐसे ग्रंथ रचकर पूर्ण मानवता को ही कलंकित कर डाला है। ईश्वर इन सभी को सद्बुद्धि प्रदान करे।
पं.महेन्द्र कुमार आर्य
पूर्व प्रधान, आर्य समाज सूरजपुर