छलका दर्द
कहीं मान मिला,अपमान मिला
सब कुछ सहते चले गए ।
सम्मान की भूख बदस्तूर है ,
सिस्टम से लड़ते चले गए ।
हर कोई रूठा , छूटा पीछे
भूखा था जो पैसों का ।
जख्म का मरहम पाने को
हम दूर होते चले गए ।
मन की ख्वाहिश दफन हुई
कर्ज का बोझ बढ़ा इतना ।
फजऱ् पड़े हैं जस के तस ,
हम अपनो से ही छले गए ।
साँसो का हक किसको दूँ मैं ,
किसे बताऊँ किसका हूँ मैं ।
अपने ही बिछाये जालों मे
खुद ही फँसते चले गए ।
कौन है अपना कौन पराया
सब पे है माया का साया ।
किस.किस दलदल की बात करूँ
पत्थर मे धंसते चले गए ।
श्याह अंधेरा हर कोने मे
कहाँ दर्द है अब रोने मे ।
रीते दिल चाह है रीति,
सब हँस कर देखो चले गए ।
अपनी समझ बताऊँ किसको ,
अपना दर्द सुनाऊँ किसको।
मुझसे ज्यादा दुखी सभी हैं
यह कहते सारे चले गए ।
शब्द हुए गुमनाम हैं जब से ए
नज़्म बनी बेनाम हैं तबसे ।
जब से गमों मे गुमसुम हूँ मैं ए
गूंगे भी बककर चले गए ।
दरकता समाज
सम्बोधन संबंधहीन सब
सार्थकता से दूर हो चले ।
गरिमामय जब रहा न कुछ भी
गर्वित पुंज कहाँ से लाऊँ ॥
संस्कार सब लुप्त हो रहे
नैतिकता का घोर अकाल।
अपने ही अपनों के दुश्मन
किसे अपनत्व का पाठ सिखाऊँ
कहाँ लुप्त है सहनशीलता
भरी कलह से हर दीवार ।
लुकाछिपी सा त्रासित जीवन
फिर भी नित्य निकेतन जाऊँ ।
संवादहीन चुपचाप अकिंचन
अवचेतन मन शून्य झाँकता ।
गहन अंधेरा मन मंदिर मे
कैसे ज्ञान की ज्योति जलाऊँ ॥
आतुरता को नहीं प्रतीक्षा
दरकिनार कर सबकी इच्छा ।
किस वजूद की यह मंत्रणा
नया कौन सा गीत सुनाऊँ ॥
देव पूज्य थी धरा हमारी
पढ़ते आए , सुनते आए ।
धूलदृधूसरित शिला पट्ट अब
नया कौन अभिलेख सजाऊँ ॥
कहीं मान मिला,अपमान मिला
सब कुछ सहते चले गए ।
सम्मान की भूख बदस्तूर है ,
सिस्टम से लड़ते चले गए ।
हर कोई रूठा , छूटा पीछे
भूखा था जो पैसों का ।
जख्म का मरहम पाने को
हम दूर होते चले गए ।
मन की ख्वाहिश दफन हुई
कर्ज का बोझ बढ़ा इतना ।
फजऱ् पड़े हैं जस के तस ,
हम अपनो से ही छले गए ।
साँसो का हक किसको दूँ मैं ,
किसे बताऊँ किसका हूँ मैं ।
अपने ही बिछाये जालों मे
खुद ही फँसते चले गए ।
कौन है अपना कौन पराया
सब पे है माया का साया ।
किस.किस दलदल की बात करूँ
पत्थर मे धंसते चले गए ।
श्याह अंधेरा हर कोने मे
कहाँ दर्द है अब रोने मे ।
रीते दिल चाह है रीति,
सब हँस कर देखो चले गए ।
अपनी समझ बताऊँ किसको ,
अपना दर्द सुनाऊँ किसको।
मुझसे ज्यादा दुखी सभी हैं
यह कहते सारे चले गए ।
शब्द हुए गुमनाम हैं जब से ए
नज़्म बनी बेनाम हैं तबसे ।
जब से गमों मे गुमसुम हूँ मैं ए
गूंगे भी बककर चले गए ।
दरकता समाज
सम्बोधन संबंधहीन सब
सार्थकता से दूर हो चले ।
गरिमामय जब रहा न कुछ भी
गर्वित पुंज कहाँ से लाऊँ ॥
संस्कार सब लुप्त हो रहे
नैतिकता का घोर अकाल।
अपने ही अपनों के दुश्मन
किसे अपनत्व का पाठ सिखाऊँ
कहाँ लुप्त है सहनशीलता
भरी कलह से हर दीवार ।
लुकाछिपी सा त्रासित जीवन
फिर भी नित्य निकेतन जाऊँ ।
संवादहीन चुपचाप अकिंचन
अवचेतन मन शून्य झाँकता ।
गहन अंधेरा मन मंदिर मे
कैसे ज्ञान की ज्योति जलाऊँ ॥
आतुरता को नहीं प्रतीक्षा
दरकिनार कर सबकी इच्छा ।
किस वजूद की यह मंत्रणा
नया कौन सा गीत सुनाऊँ ॥
देव पूज्य थी धरा हमारी
पढ़ते आए , सुनते आए ।
धूलदृधूसरित शिला पट्ट अब
नया कौन अभिलेख सजाऊँ ॥
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