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Sunday, 6 September 2015

जे.पी. द्विवेदी की दो कविताएं

छलका दर्द 
कहीं मान मिला,अपमान मिला
सब  कुछ  सहते चले गए  ।
सम्मान की भूख बदस्तूर है ,
सिस्टम से  लड़ते चले गए ।

हर कोई रूठा , छूटा पीछे
भूखा  था जो  पैसों  का ।
जख्म का मरहम पाने को
हम  दूर  होते  चले गए ।

मन की ख्वाहिश दफन हुई
कर्ज का बोझ बढ़ा इतना ।
फजऱ् पड़े हैं जस के  तस ,
हम अपनो से ही छले गए ।

साँसो का हक किसको दूँ मैं ,
किसे बताऊँ किसका हूँ मैं ।
अपने ही बिछाये जालों मे
खुद ही फँसते चले गए ।

कौन  है अपना  कौन पराया
सब  पे  है  माया का साया ।
किस.किस दलदल की बात करूँ
पत्थर  मे  धंसते  चले  गए ।

श्याह  अंधेरा हर  कोने मे
कहाँ  दर्द है  अब  रोने मे ।
रीते  दिल  चाह है  रीति,
सब हँस कर देखो चले गए ।

अपनी समझ बताऊँ किसको ,
अपना दर्द सुनाऊँ  किसको।
मुझसे ज्यादा दुखी सभी हैं
यह  कहते सारे चले गए ।

शब्द हुए गुमनाम हैं जब से ए
नज़्म  बनी  बेनाम  हैं तबसे ।
जब से गमों मे गुमसुम हूँ मैं ए
गूंगे  भी  बककर  चले गए ।

दरकता समाज
सम्बोधन संबंधहीन सब
सार्थकता से दूर हो चले ।
गरिमामय जब रहा न कुछ भी
गर्वित पुंज कहाँ से लाऊँ ॥
संस्कार सब लुप्त हो रहे
नैतिकता का घोर अकाल।
अपने ही अपनों के दुश्मन
किसे अपनत्व का पाठ सिखाऊँ
कहाँ लुप्त है सहनशीलता
भरी कलह से हर दीवार ।
लुकाछिपी सा त्रासित जीवन
फिर भी नित्य निकेतन जाऊँ ।
संवादहीन चुपचाप अकिंचन
अवचेतन मन शून्य झाँकता ।
गहन अंधेरा मन मंदिर मे
कैसे ज्ञान की ज्योति जलाऊँ ॥
आतुरता को नहीं प्रतीक्षा
दरकिनार कर सबकी इच्छा ।
किस वजूद की यह मंत्रणा
नया कौन सा गीत सुनाऊँ ॥
देव पूज्य थी धरा हमारी
पढ़ते आए , सुनते आए ।
धूलदृधूसरित शिला पट्ट अब
नया कौन अभिलेख सजाऊँ ॥

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