जीव के विषय में संशय रहित ज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है। जीव के विषय में ऐसा जानना चाहिए कि जीव भी एक वस्तु या द्रव्य है। जैसे भूमि,जलाधि द्रव्य है,वैसे ही जीव भी एक द्रव्य है । जीव के लक्षण इस प्रकार से हैं-जीव सत् है,इसका कभी नाश नहीं होता,यह एक सत्तात्मक पदार्थ है। चित् है-चेतन है,अर्थात ज्ञानवान वस्तु है। अनादि है-इसकी कभी उत्पत्ति नहीं होती। इच्छा से युक्त है जिस वस्तु को हितकारी समझता है उसको लेने की इच्छा करता है। एक देशी है-एक स्थान पर रहता है,ईश्वर की भांति सर्वव्यापक भी नहीं है। अल्पज्ञ है-थोड़ा जानता है, सर्वज्ञ नहीं। कर्म करने में स्वतन्त्र है,अर्थात अच्छे-बुरे कर्म करने में स्वतन्त्र है और उन कर्मो के फल भोगने में ईश्वर के अधीन है। जब जीवात्मा अपने स्वरूप को अच्छे प्रकार से जान लेते हैं तो वह मन और इन्द्रियों को अपने अधिकार में कर लेता है। जिस प्रकार से एक विमान चालक अपने स्वरूप को ठीक प्रकार से जानता और विमान के स्वरूप संचालन को भी ठीक प्रकार से जानता है तो विमान को अपने नियन्त्रण में रखकर अपने लक्ष्य पर पहुंच जाता है। इससे भिन्न स्थिति में विमान चालक अपने अभीष्ट लक्ष्य पर नहीं पहुंच सकता। यही बात योग के विषय में भी जाननी चाहिए कि जो व्यक्ति अपने शरीर,इन्द्रियों,मनादि साधनों को ठीक प्रकार से जानता है और अपने स्वरूप को भी ठीक प्रकार से जानता है वही अपने लक्ष्य ब्रह्मप्राप्ति को कर पाता है अन्य नहीं। इसी बात को समझाने के लिए उपनिषद् में कहा है कि -हे मनुष्य! तू आत्मा को रथी जान,शरीर को रथ जान, बुद्धि को सारथी जान, मन को लगाम जान, फिर इनका प्रयोग कर।जो साधक आत्मा के स्वरूप को और शरीरादि साधनों को अच्छे प्रकार से नहीं जानते वे यही कहते हैं कि मेरा मन नहीे मानता,मेरे अधिकार में नहीं रहता, मेरी इच्छा के बिना स्वयं विषयों की ओर चला जाता है। इस अवस्था में योगाभ्यासी योगमार्ग में सफल नहीं हो पाता।जब व्यक्ति आत्मा के स्वरूप को ठीक प्रकार से जान लेते है तो चित्त की वृत्तियों के निरोध करने मे निश्चितरूपेण सफलता प्राप्त कर लेता है।
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Wednesday, 18 May 2016
Monday, 16 May 2016
स्वभाव से पवित्र है आत्मा
जीव-शरीरस्थ व्यापक आत्मा स्वभाव से पवित्र है। आत्मा की शक्ति से ही जीवों का दृष्टिमान स्थूल शरीर क्रियाशील है। यह सूक्ष्म से सूक्ष्मतर, अविनाशी तथा शरीर की समस्त इन्द्रियों का स्वामी है। इन्द्रियां तभी तक कार्य करतीं हैं जब तक आत्मा शरीर में है। शरीर और शरीर के साथ समस्त इंन्द्रियां नाशवान हैं परन्तु आत्मा अनिपद्यमान अर्थात नष्ट न होने वाली अविनाशी है। आत्मा नित्य अर्थात सदैव रहती है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा भी है-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: । न चैनं क्लेदन्त्यापो न शोषयति मारुत:।।
इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, इसको आग जला नहीं सकी। इसको जल डुबा नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती। इस अविनाशी आत्मा स्वामी परमात्मा है। वेद में भी कहा गया है-
अग्ने घृतव्रताय ते समुद्रायेव सिन्धव:। गिरो वाश्रास ईरते।। ऋग्वेद मंडल 8 सूक्त 44 मंत्र 25
यह शरीरस्थ आत्मा ईश्वर का सखा और सेवक है यह अपने स्वामी का महान ऐश्वर्य चिरकाल से देख रहा है। यद्यपि शरीरबद्ध होने के कुछ काल के लिए स्वामी से विमुख हो रहा है। इसकी स्वाभाविक गति ईश्वर की ओर ही है, जैसे नदियों की गति समुद्र की ओर होती है।
शास्त्रों में ऋषियों ने भी कहा है कि हे मनुष्यों ! तुम शरीर मात्र नहीं हो, तुम आत्मा हो। शरीर रूपी रथ का आत्मा रथी है। बुद्धि और ज्ञान कोचवान, मन लगाम, शरीर की दस इंन्द्रियां जिनमें पांच ज्ञानेंन्द्रियां -कान,त्वचा,आंख, जीभ, और नाक। तथा पांच कर्मेन्द्रियां-वाणी,हाथ,पैर,गुदा और उपस्थ रथ के घोड़े और इन्द्रियों के भोग, इनका भोजन है।
आत्मा की मुक्ति का स्वरूप क्या है?
शरीर आत्मा का भोग स्थूल है अर्थात जन्म जन्मान्तर में कृत पुण्य और पापों के कर्मफल को भोगने का माध्यम है। जब बुद्धि ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो जाती है और मनुष्य इसके प्रकाश में शुभ कर्म कर इस आत्मा को शुद्ध और निर्मल कर,पुण्यों से संस्कारित कर लेता है तो आत्मा इस शरीर के माध्यम से सुख-शान्ति तथा आनन्द प्राप्त कर अन्त में संचित शुभ कर्मों के प्रभाव से अपने स्वामी यानी परमात्मा के सान्निध्य में विचरती है। यही आत्मा की मुक्ति का स्वरूप है।
परन्तु इसके विपरीत जब मनुष्य अज्ञान के अन्धकार में डूब जाता है तो शरीर रूपी रथ का बुद्धि रूपी कोचवान,ज्ञान से रहित अज्ञान ग्रसित होकर संसार के अस्थाई आनन्द को सदैव रहने वाला समझ शरीर को ही सब कुछ मान कर आमोद-प्रमोद को ही जीवन का परम लक्ष्य जान और मान विलास में लिप्त होकर,मदहोश,शराबी की भांति शरीर और मन पर से नियंत्रण खो बैठता है। जैसे कोचवान के मदहोश होने पर लगाम से उसका नियंत्रण समाप्त होकर घोड़ों की लगाम ढीली हो जाती है। लगाम के ढीले होते रथ में जुते घोड़े स्वच्छन्द हो निर्धारित मार्ग को छोड़ कर मार्ग से भटक कर जहां-तहां ,इधर-उधर सरपट दौड़ लगाते हैं और मार्ग आने वाले खार खण्डों, रोड़े पत्थरों आदि से न बचकर उनसे ठोकर खा-खाकर खार खण्डों में गिर कर रथी और स्वयं के हाथ-पैर तुड़वा कर विनाश को प्राप्त होते हैं। उसी प्रकार ज्ञान से रहित मनुष्य की बुद्धि अज्ञान से ग्रसित होकर, मन पर से नियंत्रण खो बैठती है। मनुष्य मन पर से नियंत्रण खो, इन्द्रियों के वशीभूत हो,इन्द्रियों को उनके निर्धारित विषयों को भोग-भोगने के लिए स्वतन्त्र छोड़ देता है। वह भोग भोगने के पदार्थों और साधनों के उपलब्धता के लिए नैतिकता-अनैतिकता,धर्म-अधर्म,उचित-अनुचित, और बुरे या भले का विचार छोड़ दुष्कर्मों के द्वारा अपनी आत्मा को पापों से संस्कारित, अपवित्र तथा मलिन कर बैठता है। परिणामस्वरूप वर्तमान शरीर की मृत्यु के उपरान्त आत्मा जन्म-जन्मान्तरों में नाना प्रकार की योनियों को प्राप्त होकर घोर पीड़ा,रोग,शोक तथा दुख भोगती है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा भी है-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: । न चैनं क्लेदन्त्यापो न शोषयति मारुत:।।
इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, इसको आग जला नहीं सकी। इसको जल डुबा नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती। इस अविनाशी आत्मा स्वामी परमात्मा है। वेद में भी कहा गया है-
अग्ने घृतव्रताय ते समुद्रायेव सिन्धव:। गिरो वाश्रास ईरते।। ऋग्वेद मंडल 8 सूक्त 44 मंत्र 25
यह शरीरस्थ आत्मा ईश्वर का सखा और सेवक है यह अपने स्वामी का महान ऐश्वर्य चिरकाल से देख रहा है। यद्यपि शरीरबद्ध होने के कुछ काल के लिए स्वामी से विमुख हो रहा है। इसकी स्वाभाविक गति ईश्वर की ओर ही है, जैसे नदियों की गति समुद्र की ओर होती है।
शास्त्रों में ऋषियों ने भी कहा है कि हे मनुष्यों ! तुम शरीर मात्र नहीं हो, तुम आत्मा हो। शरीर रूपी रथ का आत्मा रथी है। बुद्धि और ज्ञान कोचवान, मन लगाम, शरीर की दस इंन्द्रियां जिनमें पांच ज्ञानेंन्द्रियां -कान,त्वचा,आंख, जीभ, और नाक। तथा पांच कर्मेन्द्रियां-वाणी,हाथ,पैर,गुदा और उपस्थ रथ के घोड़े और इन्द्रियों के भोग, इनका भोजन है।
आत्मा की मुक्ति का स्वरूप क्या है?
शरीर आत्मा का भोग स्थूल है अर्थात जन्म जन्मान्तर में कृत पुण्य और पापों के कर्मफल को भोगने का माध्यम है। जब बुद्धि ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो जाती है और मनुष्य इसके प्रकाश में शुभ कर्म कर इस आत्मा को शुद्ध और निर्मल कर,पुण्यों से संस्कारित कर लेता है तो आत्मा इस शरीर के माध्यम से सुख-शान्ति तथा आनन्द प्राप्त कर अन्त में संचित शुभ कर्मों के प्रभाव से अपने स्वामी यानी परमात्मा के सान्निध्य में विचरती है। यही आत्मा की मुक्ति का स्वरूप है।
परन्तु इसके विपरीत जब मनुष्य अज्ञान के अन्धकार में डूब जाता है तो शरीर रूपी रथ का बुद्धि रूपी कोचवान,ज्ञान से रहित अज्ञान ग्रसित होकर संसार के अस्थाई आनन्द को सदैव रहने वाला समझ शरीर को ही सब कुछ मान कर आमोद-प्रमोद को ही जीवन का परम लक्ष्य जान और मान विलास में लिप्त होकर,मदहोश,शराबी की भांति शरीर और मन पर से नियंत्रण खो बैठता है। जैसे कोचवान के मदहोश होने पर लगाम से उसका नियंत्रण समाप्त होकर घोड़ों की लगाम ढीली हो जाती है। लगाम के ढीले होते रथ में जुते घोड़े स्वच्छन्द हो निर्धारित मार्ग को छोड़ कर मार्ग से भटक कर जहां-तहां ,इधर-उधर सरपट दौड़ लगाते हैं और मार्ग आने वाले खार खण्डों, रोड़े पत्थरों आदि से न बचकर उनसे ठोकर खा-खाकर खार खण्डों में गिर कर रथी और स्वयं के हाथ-पैर तुड़वा कर विनाश को प्राप्त होते हैं। उसी प्रकार ज्ञान से रहित मनुष्य की बुद्धि अज्ञान से ग्रसित होकर, मन पर से नियंत्रण खो बैठती है। मनुष्य मन पर से नियंत्रण खो, इन्द्रियों के वशीभूत हो,इन्द्रियों को उनके निर्धारित विषयों को भोग-भोगने के लिए स्वतन्त्र छोड़ देता है। वह भोग भोगने के पदार्थों और साधनों के उपलब्धता के लिए नैतिकता-अनैतिकता,धर्म-अधर्म,उचित-अनुचित, और बुरे या भले का विचार छोड़ दुष्कर्मों के द्वारा अपनी आत्मा को पापों से संस्कारित, अपवित्र तथा मलिन कर बैठता है। परिणामस्वरूप वर्तमान शरीर की मृत्यु के उपरान्त आत्मा जन्म-जन्मान्तरों में नाना प्रकार की योनियों को प्राप्त होकर घोर पीड़ा,रोग,शोक तथा दुख भोगती है।
Friday, 13 May 2016
कटु सत्य
जो भाग्य में है, वो भाग कर आएगा
जो नहीं है, वह आकर भी भाग जाएगा।
जिंदगी को इतना सीरियस लेने की जरूरत
नहीं है यारों
यहों से जिन्दा बचकर कोई नहीं जाएगा।
एक सत्य यह है कि अगर जिंदगी
अच्छी होती तो
हम इस दुनिया में रोते-रोते हुए न आते
मगर मीठा सत्य यह भी है कि
अगर जिंदगी बुरी होती तो
लोगों को रुलाकर न जाते...
वाह रे मानव तेरा स्वभाव..
लाश को हाथ लगाता है तो नहाता है..
पर बेजुबान जीव को मार के खा जाता है।
यह मंदिर-मस्जिद भी क्या गजब की जगह है
दोस्तों
जहां गरीब अंदर और अंदर भीख मांगता है
विचित्र दुनिया का कठोर सत्य है यह
बारात में दूल्हा सबसे पीछे और
दुनिया आगे चलती है
मय्यत में जनाजा आगे
और दुनिया पीछे चलती है
यानि दुनिया खुशी में आगे और
दुख में पीछे हो जाती है
अजब तेरी दुनिया-गजब तेरा खेल
मोमबत्ती जलाकर मुर्दों को याद करते हैं
और मोमबत्ती बुझा कर जनम दिन मनाते हैं
जो नहीं है, वह आकर भी भाग जाएगा।
जिंदगी को इतना सीरियस लेने की जरूरत
नहीं है यारों
यहों से जिन्दा बचकर कोई नहीं जाएगा।
एक सत्य यह है कि अगर जिंदगी
अच्छी होती तो
हम इस दुनिया में रोते-रोते हुए न आते
मगर मीठा सत्य यह भी है कि
अगर जिंदगी बुरी होती तो
लोगों को रुलाकर न जाते...
वाह रे मानव तेरा स्वभाव..
लाश को हाथ लगाता है तो नहाता है..
पर बेजुबान जीव को मार के खा जाता है।
यह मंदिर-मस्जिद भी क्या गजब की जगह है
दोस्तों
जहां गरीब अंदर और अंदर भीख मांगता है
विचित्र दुनिया का कठोर सत्य है यह
बारात में दूल्हा सबसे पीछे और
दुनिया आगे चलती है
मय्यत में जनाजा आगे
और दुनिया पीछे चलती है
यानि दुनिया खुशी में आगे और
दुख में पीछे हो जाती है
अजब तेरी दुनिया-गजब तेरा खेल
मोमबत्ती जलाकर मुर्दों को याद करते हैं
और मोमबत्ती बुझा कर जनम दिन मनाते हैं
मै कौन हूं
सर्वप्रथम इस पश्न पर विचार किया जाए कि मैं कौन हूं? यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से पूछे कि तू कौन है? तो वह उसे उत्तर में अपना नाम बताएगा। मान लीजिए कि वह उत्तर में यह कहता है कि मैं श्वेतांक हूं। इसके बाद यदि प्रश्नकर्ता यह पूछे कि श्वेतांक तुम्हारे शरीर के किस अंग का नाम है? तो वह निरुत्तर हो जाएगा, क्योंकि शरीर कि किसी अंग का नाम श्वेतांक नहीं है। शरीर के अंगों के नाम तो शिर,नेत्र,ग्रीवा,नाक,कान,हाथ,पैर और उदर आदि हैं।
हम मनुष्यों ने अपनी-अपनी भाषा में प्रत्येक वस्तु का नाम रखा हुआ है। जिस प्रकार एक वृक्ष केविभिन्न अंगों के नाम -जड़,तना,डाल,पत्ते,पुष्प,फल आदि होते हें,उसी प्रकार शरीर के अंगों के नाम भी अलग-अलग हैं। जिस प्रकार जड़,तना,डाल,पत्ता ,फूल आदि के संयुक्त रूप को वृक्ष कहते हैं। और उस वृक्ष को भी उसकी विशेषताओं के आधार पर आम,नीम,वट,पीपल,अमरूद आदि का वृक्ष कहते हेँ। इसी प्रकार विभिन्न्न अंगों वालते मानव शरीर को विभिन्न नामों से पुकारते हैं।
मैं शब्द का अर्थ -आत्मा । यदि कोई व्यक्ति कहे कि मैं बहुत दुर्बल हो गया हंू तो यहां मैं का अर्थ है-मेरा या मुझ आत्मा का शरीर, परन्तु यदि कोई व्यक्ति मृत्यु के समय यह कहे कि अच्छा मैं जा रहा हूं तो यहां मैं का अर्थ आत्मा है।
प्रत्येक प्राणी के शरीर में एक अदृश्य शक्ति छिपी रहती है। जिसे आत्मा कहते हें। यह आत्मा ही इस शरीर को चला रहा है। इससे सम्पूर्ण कार्य करा रहा है। यह शरीर स्वयं कुछ भी करने में असमर्थ है। शरीर में जब तक आत्मा का निवास रहता है तभी तक यह शरीर देखता है, सुनता है, हंसता-बोलता है, चलता-फिरता है,भोग-बिलास करता है, अध्ययन-लेखन करता है, योग साधना करता है, सुख-दुख का अनुभव करता है और स्वस्थ-सुन्दर रहता है परन्तु जैेसे ही आत्मा इस शरीर से निकल जाता है वैसे ही यह शरीर एक ओर लुढ़क जाता है। इसका देखना,हंसना-बोलना,चलना-फिरना आदि सभी कार्य बन्द हो जाते हैं और यह अत्यधिक सुन्दर शरीर गलने-सडऩे लगता है।
यदि शरीर अकेला होता या इसमें आत्मा की कोई सत्ता न होती तो यह शरीर इस प्रकार निष्क्रिय क्यों हो जाया करता। मृत्यु क बाद शरीर तो पहले जैसा रहता है, परंतु संसार के सभी चिकित्सक एवं वैज्ञानिक मिलकर भी उसे जीवित नहीं कर सकते, न आज तक कर सके हैं और न भविष्य में कभी कर सकेंगे। यह शाश्वत सत्य है और जीवन-नियम मानव के हाथ या अधिकार से बाहर है। इस प्रकार इस शरीर के अन्दर कोई एेसी शक्ति विद्यमान रहती है, जो परमात्मा की आज्ञा से इस शरीर को धारण करती है तथा उसकी आज्ञा से इस शरीर को छोड़ देती है। यह शक्ति ही आत्मा है। यह आत्मा ही मैं हूं। अत: मैं कौन हूं? इस प्रश्न का उत्तर है-मैं आत्मा हूं, जो शरीर में रहता हूं। हमें यह जान लेना भी आवश्यक है कि आत्मा कैसा है, कहां रहता है और क्या करता है।
जब यह ज्ञात हो गया कि मैं आत्मा हूं तो यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि मैं कैसा हूं? अर्थात आत्मा का स्वरूप कैसा है? वेद तथा वेदानुकूल धर्म-ग्रन्थों में आत्मा के स्वरूप का वर्णन विस्तारपूर्वक विद्यमान है।
हम मनुष्यों ने अपनी-अपनी भाषा में प्रत्येक वस्तु का नाम रखा हुआ है। जिस प्रकार एक वृक्ष केविभिन्न अंगों के नाम -जड़,तना,डाल,पत्ते,पुष्प,फल आदि होते हें,उसी प्रकार शरीर के अंगों के नाम भी अलग-अलग हैं। जिस प्रकार जड़,तना,डाल,पत्ता ,फूल आदि के संयुक्त रूप को वृक्ष कहते हैं। और उस वृक्ष को भी उसकी विशेषताओं के आधार पर आम,नीम,वट,पीपल,अमरूद आदि का वृक्ष कहते हेँ। इसी प्रकार विभिन्न्न अंगों वालते मानव शरीर को विभिन्न नामों से पुकारते हैं।
मैं शब्द का अर्थ -आत्मा । यदि कोई व्यक्ति कहे कि मैं बहुत दुर्बल हो गया हंू तो यहां मैं का अर्थ है-मेरा या मुझ आत्मा का शरीर, परन्तु यदि कोई व्यक्ति मृत्यु के समय यह कहे कि अच्छा मैं जा रहा हूं तो यहां मैं का अर्थ आत्मा है।
प्रत्येक प्राणी के शरीर में एक अदृश्य शक्ति छिपी रहती है। जिसे आत्मा कहते हें। यह आत्मा ही इस शरीर को चला रहा है। इससे सम्पूर्ण कार्य करा रहा है। यह शरीर स्वयं कुछ भी करने में असमर्थ है। शरीर में जब तक आत्मा का निवास रहता है तभी तक यह शरीर देखता है, सुनता है, हंसता-बोलता है, चलता-फिरता है,भोग-बिलास करता है, अध्ययन-लेखन करता है, योग साधना करता है, सुख-दुख का अनुभव करता है और स्वस्थ-सुन्दर रहता है परन्तु जैेसे ही आत्मा इस शरीर से निकल जाता है वैसे ही यह शरीर एक ओर लुढ़क जाता है। इसका देखना,हंसना-बोलना,चलना-फिरना आदि सभी कार्य बन्द हो जाते हैं और यह अत्यधिक सुन्दर शरीर गलने-सडऩे लगता है।
यदि शरीर अकेला होता या इसमें आत्मा की कोई सत्ता न होती तो यह शरीर इस प्रकार निष्क्रिय क्यों हो जाया करता। मृत्यु क बाद शरीर तो पहले जैसा रहता है, परंतु संसार के सभी चिकित्सक एवं वैज्ञानिक मिलकर भी उसे जीवित नहीं कर सकते, न आज तक कर सके हैं और न भविष्य में कभी कर सकेंगे। यह शाश्वत सत्य है और जीवन-नियम मानव के हाथ या अधिकार से बाहर है। इस प्रकार इस शरीर के अन्दर कोई एेसी शक्ति विद्यमान रहती है, जो परमात्मा की आज्ञा से इस शरीर को धारण करती है तथा उसकी आज्ञा से इस शरीर को छोड़ देती है। यह शक्ति ही आत्मा है। यह आत्मा ही मैं हूं। अत: मैं कौन हूं? इस प्रश्न का उत्तर है-मैं आत्मा हूं, जो शरीर में रहता हूं। हमें यह जान लेना भी आवश्यक है कि आत्मा कैसा है, कहां रहता है और क्या करता है।
जब यह ज्ञात हो गया कि मैं आत्मा हूं तो यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि मैं कैसा हूं? अर्थात आत्मा का स्वरूप कैसा है? वेद तथा वेदानुकूल धर्म-ग्रन्थों में आत्मा के स्वरूप का वर्णन विस्तारपूर्वक विद्यमान है।
Thursday, 12 May 2016
मानव जीवन का रहस्य
परमपिता परमात्मा की कृपा से जब मनुष्य में सद्बुद्धि जाग्रत होती है, तो वह इस अद्भुत मानव-शरीर एवं जीवन को देखकर यह विचारता है कि मैं कौन हूं्र, मैं कहां से आया हूं, मैं इस पृथ्वी पर क्यों आया हूं, और इस जीवन के बाद मैं कहा चला जाऊंगा। यह विचार प्रत्येक मनुष्य के मन में उत्पन्न नहीं होता क्योंकि जो व्यक्ति मात्र खाने-पीने ,सोने-जागने,धन-संग्रह करने, भोग-विलास करने, शरीर को सजाने-संवारने या अन्य सांसारिक कार्यो में ही लगे रहते हें, जो सदैव इन कार्यों को करने की ही चिन्ता करते रहते हैंं। इस संसार को अद्भुत रचना-प्रक्रिया को देखकर चकित नहीं होते और इसके रचयिता का चिन्तन नहीं करते,उनके मन में ये प्रश्न उत्पन्न नहीं होते । जिस व्यक्ति के मन में ये प्रश्न उत्पन्न होते हें और जो उनका उत्तर पाना चाहता है, वह व्यक्ति निश्चय ही सौभाग्यशाली है। इसके विपरीत जिसके मन में ये प्रश्न उत्पन्न नहीं होते या उत्पन्न होने पर भी जो इनका उत्तर पाना नहीं चाहता, वह व्यक्ति अभागा है और उसका यह जीवन व्यर्थ है।
क्या है आत्मा का गूढ़ रहस्य
हम जब अध्यात्म की बात करते हैं तो हमारे सामने दो चीजें सामने आतीं हैं। एक ईश्वर,परमात्मा और दूसरी आत्मा या जीवात्मा। यदि हम प्रैक्टिकल बात करें तो हम देखते हैं कि आजकल के अर्थ युग में आधुनिक जीवनशैली में भागमभाग में इतना समय ही नहीं मिल पाता है कि मनुष्य अध्यात्म या आत्मा व परमात्मा के बारे में चर्चा कर सके। आज का मनुष्य आत्मा-परमात्मा के बारे में बात तभी करता है जब या तो वह किसी व्यक्ति की अंतिम यात्रा में जाता है या अंत्येष्टि स्थल पर लिखे गीता व अन्य ग्रंथों के वाक्यों पर चर्चा करने के बाद फिर भूल जाता है। इस कटु सत्य हमें स्वीकार करना होगा। सत्य है कि हम मोक्ष या मुक्ति के बारे में आसानी से बात करने लगते हैं लेकिन इसे पहले हमें आत्मा और परमात्मा के गूढ़ रहस्य के बारे में बात करनी होगी। आत्मा के दो प्रकार हैं-एक अणु आत्मा और दूसरा विभु आत्मा। कठोपनिषद् में इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है-
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मस्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमक्रतु: पश्यति वीतशोको धातु: प्रसादान्महिमानमात्मन:।।
परमात्मा तथा अणु आत्मा दोनो शरीर रूपी वृक्ष में जीव के हृदय में विद्यमान हैं और इनमें जो समस्त इच्छाओं तथा शोकों से मुक्त हो चुका है, वही ईश्वर की कृपा से आत्मा की महिमा को जान सकता है।
आत्मा के बारे में रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं:-
ईश्वर अंश जीव अविनाशी,चेतन अमल सहज सुख राशि।।
श्रीमदभगवदगीता के दूसरे अध्याय के 20 श्लोक में लिखा है
न जायते म्रियते वा कदाचिन्, नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा, नित्य,शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर मारा नहीं जाता।
जो जीवात्मा ईश्वर को प्राप्त करना चाहता है, वह अपनी शक्ति, गुण,स्वरूप को जाने बिना ईश्वर को नहीं जान सकता। जब व्यक्ति शीशे में देखता है तो विचारता है कि मैं पुरुष वा स्त्री हूं। काला,गोरा,नाटा,बालक,वृद्ध हूं । यह मिथ्या ज्ञान है। परन्तु मैं स्त्री,पुरुष आदि शरीर वाला हूं यह विचार करना चाहिए। आज व्यक्ति ने पृथ्वी का चप्पा-चप्पा खोज मारा,चन्द्रमादि ग्रहों तक पहुंच गया है। प्राकृतिक यानी भौतिक अनेक पदार्थों को जान लिया है परन्तु स्वयं के बारे में मानव को बहुत अल्पज्ञान है।
परिभाषाएं व सिद्धान्त बदल जाने से विचार और व्यवहार बदल जाते हैं। कुरान-बाइबिल में आत्मा के बारे में बहुत कम बातें लिखीं हैं। जो लिखी हैं वे भी प्राय: गलत हैं। जैसे मनुष्य को छोड़कर किसी में आत्मा नहीं मानी। स्त्री में पूरी आत्मा मानते ही नहीं हैं। पाकिस्तान में स्त्री को आधी आत्मायुक्त मानने से उसे चुनाव में आधे वोट का अधिकार है। अग्नि आदि भौतिक पदार्थ के बारे में हमारा जैसा व्यावहारिक ज्ञान है, वैसा आत्मा के बारे में भी हो। मुझ आत्मा को अस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती इतना समझ लेने मात्र से कितनी शक्ति व निर्भयता आ जाती है। दयानन्द पर विष प्रयोग हुआ,मतीदास को चीरा गया। वैरागी की खाल नुचवाई गई,गुरु के बच्चे को दीवार में चिनवाए गए, कढ़ाई में तले गए, परन्तु उन्होंने आत्मा का सच्चा नित्य स्वरूप जानकर काहा कि हमारे आत्मा का कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। उन्होंने अपने अनित्य शरीर को आत्मा नहीं माना। आत्मा को जानकर व्यक्ति महान् सामथ्र्यवान् हो जाता है। यह वास्तविक ज्ञान के कारण है। जीवात्मा का कोई रंग-रूप नहीं,कोई भार नहीं है। जैसे भौतिक वस्तुओं में रंग,रूप,स्पर्श,लम्बाई,चौड़ाई आदि गुण पाये जाते हैं,वैसे जीवात्मा में नहीं हैं।
एक रोचक बात,एक पुस्तक है 501 आश्चर्यजनक तथ्य उसमें जीवात्मा का भार लिखा है कि जीवात्म 21 ग्राम का है। कुछ वैज्ञानिकों ने प्रयोग किया। मरते हुए एक व्यक्ति को बॉक्स में बन्द करके तुला में तोला गया । थोड़े काल में वह मर गया, अर्थात आत्मा निकल गई उसे फिर तोला गया तो 21 ग्राम भार कम हुआ। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि जीवात्मा 21 ग्राम का है। अब इस ग्राम में कितनी चीटियां समा जाएंगी? शायद हजारों..। कितना अज्ञान हैं आत्मा के विषय में विज्ञान। जैसे लोग कहते है कि आत्मा घटता-बढ़ता है। हाथी मे जाएगा तो बढ़ जाएगा और चीटी में जाएगा तो घट जाएगा। सत्य वैदिक सिद्धान्त यह है कि जीवात्मा अपरिणामी होने से घटता-बढ़ता नही है वह अभौतिक वस्तु होने से स्थान भी नहीं घेरता। एक सुई की नोक में विश्व के सभी जीवात्मा समा सकते हैं।
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