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Wednesday, 18 May 2016

जीव क्या है और कैसा है?

जीव के विषय में संशय रहित ज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है। जीव के विषय में ऐसा जानना चाहिए कि जीव भी एक वस्तु या द्रव्य है। जैसे भूमि,जलाधि द्रव्य है,वैसे ही जीव भी एक द्रव्य है । जीव के लक्षण इस प्रकार से हैं-जीव सत् है,इसका कभी नाश नहीं होता,यह एक सत्तात्मक पदार्थ है। चित् है-चेतन है,अर्थात ज्ञानवान वस्तु है। अनादि है-इसकी कभी उत्पत्ति नहीं होती। इच्छा से युक्त है जिस वस्तु को हितकारी समझता है उसको लेने की इच्छा करता है। एक देशी है-एक स्थान पर रहता है,ईश्वर की भांति सर्वव्यापक भी नहीं है। अल्पज्ञ है-थोड़ा जानता है, सर्वज्ञ नहीं। कर्म करने में स्वतन्त्र है,अर्थात अच्छे-बुरे कर्म करने में स्वतन्त्र है और उन कर्मो के फल भोगने में ईश्वर के अधीन है। जब जीवात्मा अपने स्वरूप को अच्छे प्रकार से जान लेते हैं तो वह मन और इन्द्रियों को अपने अधिकार में कर लेता है। जिस प्रकार से एक विमान चालक अपने स्वरूप को ठीक प्रकार से जानता और विमान के स्वरूप संचालन को भी ठीक प्रकार से जानता है तो विमान को अपने नियन्त्रण में रखकर अपने लक्ष्य पर पहुंच जाता है। इससे भिन्न स्थिति में विमान चालक अपने अभीष्ट लक्ष्य पर नहीं पहुंच सकता। यही बात योग के विषय में भी जाननी चाहिए कि जो व्यक्ति अपने शरीर,इन्द्रियों,मनादि साधनों को ठीक प्रकार से जानता है और अपने स्वरूप को भी ठीक प्रकार से जानता है वही अपने लक्ष्य ब्रह्मप्राप्ति को कर पाता है अन्य नहीं। इसी बात को समझाने के लिए उपनिषद् में कहा है कि -हे मनुष्य! तू आत्मा को रथी जान,शरीर को रथ जान, बुद्धि को सारथी जान, मन को लगाम जान, फिर इनका प्रयोग कर।जो साधक आत्मा के स्वरूप को और शरीरादि साधनों को अच्छे प्रकार से नहीं जानते वे यही कहते हैं कि मेरा मन नहीे मानता,मेरे अधिकार में नहीं रहता, मेरी इच्छा के बिना स्वयं विषयों की ओर चला जाता है। इस अवस्था में योगाभ्यासी योगमार्ग में सफल नहीं हो पाता।जब व्यक्ति आत्मा के स्वरूप को ठीक प्रकार से जान लेते है तो चित्त की वृत्तियों के निरोध करने मे निश्चितरूपेण सफलता प्राप्त कर लेता है।

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