सर्वप्रथम इस पश्न पर विचार किया जाए कि मैं कौन हूं? यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से पूछे कि तू कौन है? तो वह उसे उत्तर में अपना नाम बताएगा। मान लीजिए कि वह उत्तर में यह कहता है कि मैं श्वेतांक हूं। इसके बाद यदि प्रश्नकर्ता यह पूछे कि श्वेतांक तुम्हारे शरीर के किस अंग का नाम है? तो वह निरुत्तर हो जाएगा, क्योंकि शरीर कि किसी अंग का नाम श्वेतांक नहीं है। शरीर के अंगों के नाम तो शिर,नेत्र,ग्रीवा,नाक,कान,हाथ,पैर और उदर आदि हैं।
हम मनुष्यों ने अपनी-अपनी भाषा में प्रत्येक वस्तु का नाम रखा हुआ है। जिस प्रकार एक वृक्ष केविभिन्न अंगों के नाम -जड़,तना,डाल,पत्ते,पुष्प,फल आदि होते हें,उसी प्रकार शरीर के अंगों के नाम भी अलग-अलग हैं। जिस प्रकार जड़,तना,डाल,पत्ता ,फूल आदि के संयुक्त रूप को वृक्ष कहते हैं। और उस वृक्ष को भी उसकी विशेषताओं के आधार पर आम,नीम,वट,पीपल,अमरूद आदि का वृक्ष कहते हेँ। इसी प्रकार विभिन्न्न अंगों वालते मानव शरीर को विभिन्न नामों से पुकारते हैं।
मैं शब्द का अर्थ -आत्मा । यदि कोई व्यक्ति कहे कि मैं बहुत दुर्बल हो गया हंू तो यहां मैं का अर्थ है-मेरा या मुझ आत्मा का शरीर, परन्तु यदि कोई व्यक्ति मृत्यु के समय यह कहे कि अच्छा मैं जा रहा हूं तो यहां मैं का अर्थ आत्मा है।
प्रत्येक प्राणी के शरीर में एक अदृश्य शक्ति छिपी रहती है। जिसे आत्मा कहते हें। यह आत्मा ही इस शरीर को चला रहा है। इससे सम्पूर्ण कार्य करा रहा है। यह शरीर स्वयं कुछ भी करने में असमर्थ है। शरीर में जब तक आत्मा का निवास रहता है तभी तक यह शरीर देखता है, सुनता है, हंसता-बोलता है, चलता-फिरता है,भोग-बिलास करता है, अध्ययन-लेखन करता है, योग साधना करता है, सुख-दुख का अनुभव करता है और स्वस्थ-सुन्दर रहता है परन्तु जैेसे ही आत्मा इस शरीर से निकल जाता है वैसे ही यह शरीर एक ओर लुढ़क जाता है। इसका देखना,हंसना-बोलना,चलना-फिरना आदि सभी कार्य बन्द हो जाते हैं और यह अत्यधिक सुन्दर शरीर गलने-सडऩे लगता है।
यदि शरीर अकेला होता या इसमें आत्मा की कोई सत्ता न होती तो यह शरीर इस प्रकार निष्क्रिय क्यों हो जाया करता। मृत्यु क बाद शरीर तो पहले जैसा रहता है, परंतु संसार के सभी चिकित्सक एवं वैज्ञानिक मिलकर भी उसे जीवित नहीं कर सकते, न आज तक कर सके हैं और न भविष्य में कभी कर सकेंगे। यह शाश्वत सत्य है और जीवन-नियम मानव के हाथ या अधिकार से बाहर है। इस प्रकार इस शरीर के अन्दर कोई एेसी शक्ति विद्यमान रहती है, जो परमात्मा की आज्ञा से इस शरीर को धारण करती है तथा उसकी आज्ञा से इस शरीर को छोड़ देती है। यह शक्ति ही आत्मा है। यह आत्मा ही मैं हूं। अत: मैं कौन हूं? इस प्रश्न का उत्तर है-मैं आत्मा हूं, जो शरीर में रहता हूं। हमें यह जान लेना भी आवश्यक है कि आत्मा कैसा है, कहां रहता है और क्या करता है।
जब यह ज्ञात हो गया कि मैं आत्मा हूं तो यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि मैं कैसा हूं? अर्थात आत्मा का स्वरूप कैसा है? वेद तथा वेदानुकूल धर्म-ग्रन्थों में आत्मा के स्वरूप का वर्णन विस्तारपूर्वक विद्यमान है।
हम मनुष्यों ने अपनी-अपनी भाषा में प्रत्येक वस्तु का नाम रखा हुआ है। जिस प्रकार एक वृक्ष केविभिन्न अंगों के नाम -जड़,तना,डाल,पत्ते,पुष्प,फल आदि होते हें,उसी प्रकार शरीर के अंगों के नाम भी अलग-अलग हैं। जिस प्रकार जड़,तना,डाल,पत्ता ,फूल आदि के संयुक्त रूप को वृक्ष कहते हैं। और उस वृक्ष को भी उसकी विशेषताओं के आधार पर आम,नीम,वट,पीपल,अमरूद आदि का वृक्ष कहते हेँ। इसी प्रकार विभिन्न्न अंगों वालते मानव शरीर को विभिन्न नामों से पुकारते हैं।
मैं शब्द का अर्थ -आत्मा । यदि कोई व्यक्ति कहे कि मैं बहुत दुर्बल हो गया हंू तो यहां मैं का अर्थ है-मेरा या मुझ आत्मा का शरीर, परन्तु यदि कोई व्यक्ति मृत्यु के समय यह कहे कि अच्छा मैं जा रहा हूं तो यहां मैं का अर्थ आत्मा है।
प्रत्येक प्राणी के शरीर में एक अदृश्य शक्ति छिपी रहती है। जिसे आत्मा कहते हें। यह आत्मा ही इस शरीर को चला रहा है। इससे सम्पूर्ण कार्य करा रहा है। यह शरीर स्वयं कुछ भी करने में असमर्थ है। शरीर में जब तक आत्मा का निवास रहता है तभी तक यह शरीर देखता है, सुनता है, हंसता-बोलता है, चलता-फिरता है,भोग-बिलास करता है, अध्ययन-लेखन करता है, योग साधना करता है, सुख-दुख का अनुभव करता है और स्वस्थ-सुन्दर रहता है परन्तु जैेसे ही आत्मा इस शरीर से निकल जाता है वैसे ही यह शरीर एक ओर लुढ़क जाता है। इसका देखना,हंसना-बोलना,चलना-फिरना आदि सभी कार्य बन्द हो जाते हैं और यह अत्यधिक सुन्दर शरीर गलने-सडऩे लगता है।
यदि शरीर अकेला होता या इसमें आत्मा की कोई सत्ता न होती तो यह शरीर इस प्रकार निष्क्रिय क्यों हो जाया करता। मृत्यु क बाद शरीर तो पहले जैसा रहता है, परंतु संसार के सभी चिकित्सक एवं वैज्ञानिक मिलकर भी उसे जीवित नहीं कर सकते, न आज तक कर सके हैं और न भविष्य में कभी कर सकेंगे। यह शाश्वत सत्य है और जीवन-नियम मानव के हाथ या अधिकार से बाहर है। इस प्रकार इस शरीर के अन्दर कोई एेसी शक्ति विद्यमान रहती है, जो परमात्मा की आज्ञा से इस शरीर को धारण करती है तथा उसकी आज्ञा से इस शरीर को छोड़ देती है। यह शक्ति ही आत्मा है। यह आत्मा ही मैं हूं। अत: मैं कौन हूं? इस प्रश्न का उत्तर है-मैं आत्मा हूं, जो शरीर में रहता हूं। हमें यह जान लेना भी आवश्यक है कि आत्मा कैसा है, कहां रहता है और क्या करता है।
जब यह ज्ञात हो गया कि मैं आत्मा हूं तो यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि मैं कैसा हूं? अर्थात आत्मा का स्वरूप कैसा है? वेद तथा वेदानुकूल धर्म-ग्रन्थों में आत्मा के स्वरूप का वर्णन विस्तारपूर्वक विद्यमान है।
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