साधारण बोलचाल की भाषा में हम उसको देव मान लेते हैं जो दैवीय गुणों से सम्पन्न होता है। गांव-देहात की भाषा में बोलें तो सिर्फ देने वाला यानी दाता ही देव होता है। बाद में इस विचार में थोड़ा बदलाव आया है और मनुष्यकृत रचनाओं ने 33 करोड़ देवी देवताओं की रचना गढ़ दी। इसके बाद अवतारी महापुरुषों को भी देव बना दिया गया। विचार करने की बात है कि क्या 33 करोड़ देवी-देवा सृष्टि का संचालन कर रहे हैं। यदि सत्य है तो इससे बड़ा कोई आश्चर्य हो ही नहीं सकता लेकिन यदि इसे झूठ माना जाए तो करोड़ों अरबों लोगों की आस्थाओं को ठेस लगती है लेकिन अब सवाल उठता है सत्यता क्या है,और इसका सही जवाब कहां से खोजा जाए? इन सवालों के जवाब पर विचार किया जाए तो हमें वेदों की याद आती है। वेदों के ज्ञान ने हमें इस बारे में अंधकार से प्रकाश में लाने की सही राह दिखाई है। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद ने भी वेदों के माध्यम से हिन्दू समुदाय को नया जन्म दिया है। वेदों में स्पष्ट कहा गया है कि ईश्वर सिर्फ एक है और उसका कोई आकार नहंीं है। उसके ही इशारे पर सारी सृष्टि चलती है। वैदिक धर्म में एक निराकार सर्वज्ञ,सर्वव्यापक न्यायकारी ईश्वर को ही पूज्य-उपास्य माना गया है। उसी की उपासना की जाती है। वेदों में यह भी माना गया है कि ईश्वर अवतार नहीं लेता, अर्थात कभी शरीर धारण नहीं करता। वेदों में तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश को भी ईश्वर नहीं माना गया है। सीध्ी सच्ची से बात यह है कि यदि ये त्रिदेव ईश्वर हैं तो फिर आपने इन त्रिदेवों के चित्रों में ध्यान लगाए देखा होगा, अब सवाल उठता है कि ये ईश्वर किसका ध्यान करते होंगे, तब एक बार पुन: वेदों की शरण में जाकर जवाब मिलता है कि ये त्रिदेव भी उसी ईश्वर का स्मरण कर ध्यान लगाते हैं जो परमसत्ता का मालिक है और उसका कोई निश्चित नाम केवल ओ3म है। इसी ओम में वह समाया हुआ है। इसी के आवाहन से वह आपकी पुकार सुनता है। इसक प्रकार से ज्ञात हुआ कि ईश्वर और देव में क्या अन्तर है।
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