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Tuesday, 24 April 2018

एनडीए को हो सकता है 80 से ज्यादा सीटों का नुकसान

सिर्फ यूपी में ही  भाजपा को हो सकता है 50 सीटों का नुकसान

अगर 2019 में विपक्ष विशाल गठजोड़ यानी महागठबंधन बनाने में कामयाब रहा तो लोकप्रियता के शिखर पर पहुंये नरेन्द्र मोदी के लिए ना केवल जीत की राह मुश्किल होगी बल्कि सत्ता से भी उन्हें बेदखल होना पड़ सकता है। राजनीतिक जानकारों के मुताबिक तीन बड़े राज्यों में ही एनडीए को 80 से ज्यादा सीटों का नुकसान हो सकता है। वर्तमान आंकड़ों के आधार पर माना जा रहा है कि सिर्फ यूपी में ही सपा और बसपा की दोस्ती से भाजपा को 50 सीटों का नुकसान हो सकता है। पिछले आम चुनाव में सपा ने पांच सीटें जीती थीं, जबकि बसपा क्लीनबोल्ड हो गई थी।

अनिल कुमार मिश्र
अमीर खुसरो की मशहूर कृति ‘बहुत कठिन डगर है पनघट की,जरा बोलो मेरे अच्छे निजाम पिया’ आने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटे सत्ता पक्ष और विपक्षी राजनीतिक दलों पर एकदम खरी उतरती है। आने वाले चुनाव न तो सत्ता पक्ष के लिए आसान होंगे और न ही विपक्षी दलों के लिए।  सत्तारूढ़ एनडीए के समक्ष जहां साथी दलों की नाराजगी और जनता की नाराजगी बहुत बड़ी चुनौती बनकर सामने आई है। वहीं विपक्षी दल गठबंधन ही नहीं महागठबंधन के लिए छटपटा रहे हैं लेकिन अभी तक यह समझ में नहीं आ रहा है कि यह महागठबंधन कैसे बनाएं। प्रमुख राष्ट्रीय दल कांग्रेस भी अपनी भूमिका तय नहीं कर पा रहा है। वह एक कदम महागठबंधन की ओर बढ़ाता है तो दो कदम अपने दम पर चुनाव लड़ने की तैयारी करता है। इस दुविधा के चक्कर में विपक्षी दलों के पास समय कम होता जा रहा है। वहीं एनडीए का प्रमुख दल भारतीय जनता पार्टी भले ही अपने साथी दलों के झटके से हलकान हो लेकिन पार्टी अपने स्थापना दिवस से जनसंवाद सम्मेलनों के माध्यम से जनता के बीच जाने की तैयारी कर रहा है। पार्टी बूथ स्थर पर लोगों से मिलकर उनके जख्मों पर मरहम लगाएगी।
मशहूर कवि रामधारी सिंह दिनकर की यह कविता कि ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है,दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ । हर पांच साल पर चुनाव से पहले राजनीतिक दलों को झकझोर देती है कि जनता आती है और हर पांच साल में जनता आती है और राजनीतिक दलोें को ऐसा सबक सिखाती है कि ये दल भी पशोपेश में पड़ जाते हैं कि जनता वास्तव में जनार्दन बन गई है। हाल ही नमूने देखिया तो पता चलता है कि यह जनता पिछले पांच सालों में लोकप्रियता के शिखर पर पहुंची भाजपा की परीक्षा लेने की तैयारी कर रही है हालांकि जनता ने पहले ही झटके देने शुरू कर दिये हैं। पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार के बाद उत्तर प्रदेश का ताजा झटका आजकल सियासी जगत की सुर्खियां बना हुआ है। नेशनल फिगर माने जाने वाले यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गढ़ गोरखपुर और उनके डिप्टी केशव मौर्य के गढ़ फूलपुर में जनता ने झटका देते हुए सपा को जिता कर यह संदेश दिया है कि यह जनता है, जनार्दन। वह किसी के इशारों पर नहीं चलने वाली। अभी वक्त है संभल जाओ वरना इंदिरागांधी जैसा हश्र होने में देर नहीं लगेगी।
विपक्षी दलों में गठबंधन को लेकर कवायदें चल रहीं हैं। सभी क्षेत्रीय दल तो आपस में मिलने को तैयार हैं लेकिन राष्ट्रीय दल कांग्रेस पर संशय बना हुआ है। इन सभी दलों को राष्ट्रीय स्तर पर एक सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता है। हाल ही में तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हाल ही सोनिया गांधी से भेंट कर भाजपा को हराने का फार्मूला सुझाया था। सियासी जगत में चर्चा है कि ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी से कहा कि भाजपा को हराने का सिर्फ एक ही फार्मूला है कि उसे आमने-सामने से हराया जा सकता है। इस आमने-सामने का फार्मूला यह प्रकट हुआ है कि कांग्रेस राष्ट्रीय दल है लेकिन उसे वर्तमान की सियासी मांग को देखते हुए किंगमेकर के रूप में अपनी भूमिका अदा करनी होगी। मतलब यह है कि कांग्रेस प्रत्येक राज्य में उस दल की मदद करे जिसकी उस राज्य में अच्छी पकड़ है। इसके अलावा अन्य सहयोगी दल वोटकटवा दल की भूमिका में न आएं तो निश्चित रूप से भाजपा को हराया जा सकता है। दूसरी ओर जिस तरह से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने नरेन्द्र मोदी की नकल करते हुए अपनी पार्टी की ओवरहालिंग करनी शुरू कर दी है, उससे लगता है कि पार्टी अकेले ही चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है। शायद राहुल गांधी के दिमाग में अभी इस बात गुमान चल रहा हो कि उनकी पार्टी देश की सबसे पुरानी पार्टी और नेशनल पार्टी है, उनकी पार्टी का देश के कोने-कोने में मतदाता है, इसलिए उनकी पार्टी को गठबंधन में सबसे बड़ा हिस्सा मिलना चाहिए। जबकि हकीकत यह है कि आज पार्टी चार राज्यों में सिमट कर रह गई और आने वाले वक्त में कितने राज्यों में रह जाएगी यह तो वक्त ही बताएगा।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव की कोलकाता यात्रा से शुरू हुई विपक्षी एकता की कोशिशों को ममता बनर्जी ने अमलीजामा पहनाने की कवायद तेज कर दी है। पहले यह माना जा रहा था कि ये कसरतें तीसरे मोर्चे के लिये हैं, मगर सोनिया गांधी से संपर्क के बाद दूसरे मोर्चे की कोशिशें नजर आ रही हैं। ममता बनर्जी इसे संघीय मोर्चे की संज्ञा दे रही हैं। भाजपा के लिये यह चिंता की बात होनी चाहिए कि उसके अंसतुष्ट वरिष्ठ नेता भी ममता के सुर से सुर मिलाते नजर आ रहे हैं। दरअसल, उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के गठजोड़ से भाजपा को उपचुनाव में जो झटका लगा, उसने विपक्षी एकजुटता के हौसलों को हवा दी। निश्चित रूप से भारी बहुमत से सत्ता में आई भाजपा पिछले लगभग चार सालों में जनता की कसौटी पर खरी नहीं उतर पाई है। जिसके चलते जनता में बेचैनी जरूर है मगर इसके ये मायने भी नहीं निकाले जाने चाहिए कि जनता नये विकल्प के रूप में विपक्ष को स्वीकार कर लेगी। एकता के नाम पर भानुमति का कुनबा बार-बार एकजुट हुआ है और उनकी सत्ता लोलुपता का जो हश्र हुआ है, उसने भी जनता का मोह भंग किया है। विपक्षी दलों की अपनी सीमाएं हैं और इन क्षत्रपों की अपने राज्य में तो पैठ है मगर जरूरी नहीं कि ये सारे देश में कामयाब हो सकें।
इसके अलावा कई दलों में राज्य स्तर पर इतने मतभेद हैं कि वे राष्ट्रीय स्तर पर भले ही एकजुट हो जाएं, अपने राज्य में उनका जन्म ही एक-दूसरे के विरोध में हुआ है। क्या उम्मीद की जा सकती है कि तेलंगाना में टीआरएस कांग्रेस को स्वीकारेगी। क्या पश्चिम बंगाल में वाम दल ममता के साथ आ पायेंगे? ममता भी क्या कोलकाता में कांग्रेस के साथ चलेगी? कमोबेश यही स्थिति कांग्रेस और तेलुगू देशम पार्टी की है। फिर विपक्ष एकजुटता की बात तो कर रहा है मगर साझे कार्यक्रम पर सहमति बन पायेगी? क्या विपक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार कर पायेगा? ऐसे तमाम यक्ष प्रश्न विपक्षी एकता को लेकर सिर उठाते रहे हैं। बहरहाल विपक्षी एकता की ये कसरतें भाजपा को चिंतन-मनन का मौका  देंगी कि उसके पुराने साथी शिवसेना,तेलुगुदेशम, लोकशक्ति समाज पार्टी आदि अलग सुर में क्यों बोल रहे हैं। निश्चित रूप से एकता की ये कसरतें 2019 के आम चुनाव को लेकर की जा रही हैं मगर अभी पिक्चर काफी बाकी है। एक साल के दौरान ऐसा बहुत कुछ अप्रत्याशित हो सकता है जो देश की राजनीतिक धारा की दिशा में बदलाव ला सकता है। वक्त की नजाकत को देखते हुए आंध्र प्रदेश में बीजेपी की सहयोगी रही टीडीपी ने पीएम नरेंद्र मोदी की पार्टी को तीन तलाक देने में देर नहीं की। अगर 2019 में विपक्ष विशाल गठजोड़ बनाने में कामयाब रहा तो पीएम मोदी के लिए ना केवल जीत की राह मुश्किल होगी बल्कि सत्ता से भी उन्हें बेदखल होना पड़ सकता है। राजनीतिक जानकारों के मुताबिक तीन बड़े राज्यों में ही एनडीए को 80 से ज्यादा सीटों का नुकसान हो सकता है। सिर्फ यूपी में ही सपा और बसपा की दोस्ती से बीजेपी को 50 सीटों का नुकसान हो सकता है। साल 2014 के चुनावों में सपा ने पांच सीटें जीती थीं, जबकि बसपा क्लीनबोल्ड हो गई थी। अब उप चुनावों के बाद सपा सांसदों की संख्या सात हो गई है। कुछ समय पहले राजस्थान में भी कांग्रेस के दों सांसद उप चुनाव में जीत चुके हैं।

भाजपा के लिए क्या है माइनस-प्लस

भाजपा के लिए प्लस तो यह है कि उसकी पार्टी की 14 राज्यों में सीधे सरकार है और छह राज्यों में अन्य सहयोगी दलों के साथ सत्ता में हैं। भाजपा जिन राज्यों में अपनी स्वयं की सत्ता में है, वे हैं असम, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, त्रिपुरा, झारखण्ड,उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड है। इसके अलावा बिहार, अरुणाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, मेघालय, नागालैंड में अपने सहयोगी दलों के साथ सत्ता में है। भाजपा को यह खुशफहमी हो सकती है कि उसे अपनी सरकार वाले राज्यों में लोकसभा के चुनाव का फायदा मिल सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि इन राज्यों की सरकारी मशीनरी का लाभ अवश्य मिल सकता है। किन्तु यह बात पूर्णतया सत्य नहीं मानी जा सकती है क्योंकि भाजपा को इन्हीं चुनावों में जनता सबक भी सिखा सकती है। क्योंकि सत्ता विरोधी लहर भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसके उदाहरण पंजाब, राजस्थान,महाराष्ट्र,मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में देखने को मिल ही चुके हैं। गुजरात विधानसभा चुनाव में तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इज्जत किसी तरह से बच गई। यह भी सभी ने देखा है।

महागठबंधन में क्या है प्रमुख समस्या
महागठबंधन की आवाज तो उठ गई है लेकिन सभी गैरभाजपाई दल कांग्रेस की ओर बड़ी उम्मीद से देख रहे हैं। कांग्रेस और विपक्षी दलों के समक्ष एक बहुत बड़ी समस्या यह है कि सारे गैर कांग्रेसी दल चाहते हैं कि कांग्रेस अपनी वर्तमान नाजुक स्थिति को देखते हुए किंगमेकर की भूमिका में रहे और स्वयं दावेदारी छोड़कर पहले सभी क्षेत्रीय दलों का समर्थन करके उन्हें आगे बढ़ाए और इसके बाद सत्ता मिलने के बाद ही वह अपनी अगली भूमिका तय करे लेकिन कांग्रेसी नेतृत्व को यह कतई स्वीकार नहीं है। वह अपनी राष्ट्रीय एवं सबसे पुरानी पार्टी की मणक में है। यदि यह बात बन जाए तो निश्चित रूप से विपक्षी दल भाजपा को दिन में तारे दिखा सकते हैं।

अखिलेश-राहुल चल रहे हैं मोदी की राह पर

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राह पर चल रहे हैं। राहुल गांधी ने अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर नये युवा नेताओं को आगे लाने की रणनीति मोदी की उसी रणनीति का अनुकरण है, जिसके तहत आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह जैसे वरिष्ठ दिग्गजों को किनारे किया गया था। आज राहुल गांधी भी अपने वरिष्ठ नेताओं को किनारे करके युवाओं को आगे लाने का प्रयास कर रहे हैं। अखिलेश यादव को मोदी और भाजपा का बूथ पर नियंत्रण अधिक भा गया है और वे भी अपनी पार्टी के जिलाध्यक्षों को बूथ-बूथ पर पार्टी को मजबूत करने और आंकड़ों को जुटाने के लिए कमर कस ली है।

कौन-कौन लोग आ सकते हैं महागठबंधन में 

गैर भाजपाई महागठबंधन में उत्तर प्रदेश से सपा,बसपा का नाम तो सर्वोपरि है, इसके अलावा कई अन्य छोटे दल भी शामिल हो सकते हैं। बिहार में लालू यादव का राजद, जीतन राम मांझी का दल, सहित कई क्षेत्रीय नेता भी अपने दल के साथ आ सकते हैं। आंध्र प्रदेश की तेलुगुदेशम पाटी, उड़ीसा का बीजू जनता दल, तेलंगाना के टीआरएस, तमिलनाडु की द्रमुक, महाराष्ट्र की शिवसेना, शरद पवार की पार्टी,इसके अलावा पूर्वोत्तर राज्यों के दल भी इस महागठबंधन में आ सकते हैं।

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