हम ईश्वर की प्रार्थना करें और उसकी शरण में आएं। लेकिन इसके लिए हमें वह मार्ग और उपाय पता होना चाहिए। इस मार्ग पर किस तरह से प्रस्थान करना चाहिए और कैसे हम अपनी मंजिल यानी मोक्ष को प्राप्त करें। इसकी शुरुआत हम इन मंत्रों और प्रार्थनाओं से करते हैं।
ओ3म भूर्भुव स्व:। तत्सुवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न: प्रचोदयात्।। (यजु. 36-3)
ओ3म यह मुख्य परमेश्वर का नाम है, जिस नाम के साथ अन्य सब नाम लग जाते हैँ। जो प्राणों का भी प्राण है, सब दुखों से छुड़ाने वाला, सुख स्वरूप और अपने उपासकों को सब सुखों की प्राप्ति कराने वाला है, उस सब जगत् की उत्पत्ति करने वाले, सूर्यादि प्रकाशकों के भी प्रकाशक,समग्र एेश्वर्य के दाता, कामना करने योग्य, सर्वत्र विजय कराने वाले परमात्मा का, जो अतिश्रेष्ठ ,ग्रहण और ध्यान करने योग्य,सब क्लेशों को भस्म करने वाला, पवित्र,शुद्ध स्वरूप है, उसको हम लोग, धारण करे,यह जो परमात्मा,हमारी, बुद्धियों को उत्तम गुण, कर्म, स्वभावों की ओर प्रेरित करे। इसी प्रयोजन के लिए इस जगदीश्वर की स्तुति प्रार्थनोपासना करना और इससे भिन्न और किसी को उपास्य,इष्टदेव,उसके तुल्य वा उससे अधिक नहीं मानना चाहिए।
आइए अब हम परमेश्वर से सच्ची लगन लगाने के लिए उसकी प्रार्थना करें। प्रार्थना करने के लिए जिन मन्त्रों का उच्चारण करना होगा, हम सम उन्हीं मन्त्रों को स्वभाषित करें।
ओ3म विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद्भद्रं तन्न आ सुव।। 1।। (यजु. 30-3)
तू सर्वेश सकल सुखदाता,शुद्ध स्वरूप विधाता है।
उसके कष्ट नष्ट हो जाते, जो तेरे ढिंग आता है।
सारे दुर्गुण दुव्र्यसनों से, हमको नाथ बचा लीजे।
मंगलमय गुण कर्म पदार्थ, प्रेम सिन्धु हमको दीजे।
हिरण्यगर्भ: समवत्र्तताग्रे भूतस्यजात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवी द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। 2।।
(यजु. 13-4)
तू ही स्वयं प्रकाश सुचेतन, सुखस्वरूप शुभत्राता है।
सूर्य-चन्द्र लोकादिक को तू, रचता और टिकाता है।
पहिले था अब भी तू ही है,घट-घट में व्यापक स्वामी।
योग भक्ति तप द्वारा तुझको, पावें हम अन्तर्यामी।
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवा: ।
यस्यच्छायाअमृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम।। 3।।
(यजु. 25-13)
तू ही आत्मज्ञान बल दाता, सुयश विज्ञ जन गाते हैं।
तेरी चरण-शरण ें आकर, भवसागर तर जाते हैं।
तुझको ही जपना जीवन है, मरण तुझे बिसराने में।
मेरी सारी शक्ति लगे प्रभु, तुझ से लगन लगाने में।
य: प्राणतो निमिषतो महित्वैग इद्राजा जगतो बबूव।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषा विधेम।। 4।।
यजु. 23-2)
तू न अपनी अनुपम माया से, जग ज्योति जगाई है।
मनुज और पशुओं को रचकर, निज महिमा प्रगटाई है।
हपने हिय-सिंहासन पर, श्रद्धा से तुझे बिठाते हैं।
भक्ति-भाव की भेंटें लेकर, तब चरणों में आते हैं।
येन द्योरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा येन स्व स्तभितं येन नाक:।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमान: कस्मै देवाय हविषा विधेम।। 5।।
(यजु. 32-6)
तारे रवि चन्द्रादिक रचकर, निज प्रकाश चमकाया है।
धरणी को धारण कर तूने,कौशल अलख लखाया है।
तू ही विश्व विधाता पोषक,तेरा ही हम ध्यान करें।
शुद्ध भाव से भगवन ! तेरे, भजनामृत का पान करें।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव ।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नोअस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। 6।।
(ऋग. 10-121-10)
तुझसे भिन्न न कोई जग में, सब में तू ही समाया है।
जड़-चेतन सब तेरी रचना,तुझमें आश्रय पाया है।
हे ! सर्वोपरि विभो विश्व का, तूने साज सजाया है।
हेतु रहित अनुराग दीजिये, यही भक्त को भाया है।
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।। 7।।
(यजु. 32-10)
तू गुरु है प्रजेश भी तू है, पाप-पुण्य फल दाता है।
तू ही सा-बन्धु मम तू ही है,तुझसे ही सब नाता है।
भक्तों को इस भव बन्धन से ,तू ही मुक्त कराता है।
तू है अज अद्वैत महाप्रभु,सर्वकाल का ज्ञाता है।
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं निधेम।। 8।।
(यजु. 40-16)
तू है स्वयं प्रकाशरूप प्रभु,सबका सिरजनहार तू ही।
रसना निशि-दिन रहे तुम्हीं को, मन में बसना सदा तू ही।
अघ-अनर्थ से हमें बचाते,रहना हरदम दयानिधान।
अपने भक्त जनों को भगवन! दीजे यही विशद वरदान।
ओ3म
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