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Friday, 21 October 2016

कैसे पूर्ण हो महर्षि दयानन्द का सपना

बलिदान दिवस पर विशेष स्मरणांजलि
ओ३म् इन्द्रं वर्धन्तोऽप्तुर: कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम् अपघमन्तोऽरावण:। 
महर्षि दयानन्द का यह सपना था कि सम्पूर्ण विश्व आर्य बन जाए तो मानव का कल्याण स्वत: हो जाएगा। आर्य बनने के साथ ही दुनियां की सारी बुराइयां छू मन्तर हो जाएगी और प्रत्येक मानव मानव से वसुधैव कुटुम्बकम् का नाता मानेगा और एकदूसरे को आगे बढ़ाने में मदद करेगा। परन्तु यह सुन्दर स्वप्न महर्षि दयानन्द ने जगत कल्याण के लिए देखा है। यह पूर्ण किस तरह से हो, यह यक्ष प्रश्न अभी भी हमारे सामने है। महर्षि दयानन्द की विचारधारा के मानने वालों का यह परम कत्र्तव्य बन जाता है कि वह अपने मार्गदर्शक द्वारा दर्शाए गए मार्ग में चल कर उनका सपना पूर्ण करें। अब यह सपना किस तरह से पूर्ण होगा। इस पर प्रकाश डालते हैं।
महर्षि देव दयानन्द ने वेद का मानव मात्र के लिए यह संदेश दिया है कि वह विश्व को आर्य बनाए। इतिहास साक्षी है कि वेद के इस आदेश का अनुपालन करने में प्राचीन वैदिक ऋषियों ने अपने सम्पूर्ण सुदीर्घ जीवनों को खपा दिया था और फिर भी उनकी यह लालसा सदा बनी रहती थी कि पुन: मानव की योनि में जन्म लेकर वेद के इस आदेश का पालन किया जाए। एक युग था जब अखिल विश्व वेदानुयायी था और आर्यों का सार्वभौम अखण्ड चक्रवर्ती साम्राज्य था। वेदानुयायी होने से संसार भर के मानवों के जीवन भी अति मर्यादित थे और मर्यादित जीवन होने से संसार में सर्वत्र सुख-शान्ति का सम्राज्य था। संसार स्वर्ग समान था और आर्यत्व का बोल-बाला था। संसार परिवर्तन शील है। इस परिवर्तनशील संसार में सदा किसकी बनी रही है? आर्यों के आलस्य और प्रमाद ने जब वेद विद्या लुप्त होने लगी तो संसार गहरे अंधकार में निमग्न हो गया। वेद विद्या के लोप होने से मनुष्य अपने आचरण से भी पतित हो गया और अनार्यत्व का संसार में बोलबाला हो गया। परिणामस्वरूप नीति-अनीति का विचार जाता रहा और मानवता कराह उठी।
भ्रष्टाचार बना शिष्टाचार, शिष्टाचार का हुआ बंटाधार।
नैतिकता हो गई लापता, मानवता का हुआ तार-तार।
यदि ऐसी स्थिति से उबरना है तो हमें ऐसे कार्य करने होंगे जिनसे विश्व आर्य बन सके। हमें मानव को फिर से मानवता अथवा आर्यत्व का पाठ पढ़ाना होगा। यह कार्य आर्य समाज के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता क्योंकि वही वेद का रक्षक एवं प्रचारक है। वेद की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार एवं आज्ञाओं का अनुपालन आर्य समाज का मुख्य कर्तव्य है। वही एक मात्र मानवता का सच्चा प्रहरी, प्रतिनिधि एवं रक्षक है। वही मानवता का संदेश वाहक है। अत: आर्य समाज को ही यह सोचना है कि विश्व आर्य कैसे बने। पूर्व इसके कि इस विषय पर व्यवस्थित, क्रमबद्ध विचार किया जाए कि विश्व आर्य कैसे बने, यह जान लेना आवश्यक है कि विश्व के आर्य बनने में हमारा तात्पर्य क्या है एवं विश्व का आर्य बनना आवश्यक क्यों है। फिर विश्व के आर्य बनने में बाधक कौन-कौन से तत्व हैं एवं उनका निराकरण कैसे हो। साथ में यह भी कि आर्य कहते किसे हैं और मानव में आर्यत्व का आधान कैसे हो। इन विषयों पर विचार करने से ही हम विषय के मूल तक पहुंचने में सफल हो सकेंगे अथवा नहीं। अत: उचित यही है कि विषय को वैज्ञानिक आधार देते हुए वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार ही क्या,क्यों,कैसे आदि विभिन्न शंकायें विकसित कर उनका युक्तियुक्त वैज्ञानिक समाधान खोजा जाए। जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक न तो सही समस्या उभर कर सामने आ सकती है और न ही उसका सही समाधान ही सोचा जा सकता है। तो आइए। विषय से ुड़े हुए  कतिपय अन्य गंभीर विषयों पर भी क्रमश: विचार करते चलें।
विश्व के आर्य बनने से क्या तात्पर्य है?
जब हम विश्व के आर्य बनने की बात कहते हैं तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि विश्व के आर्य बनने से क्या तात्पर्य है क्योंकि विश्व तो जड़ एवं चेतन दोनों ही प्रत्यक्ष है। किन्तु हमारे विचार का क्षेत्र जड़ नहीं चेतन जगत है और चेतन में भी केवल मनुष्य ही क्योंकि मनुष्येतर पशु-पक्षी आदि आर्य बन नहीं सकते। आर्य श्रेष्ठ मनुष्य को कहते हैं अत: मनुष्यों को श्रेष्ठ होना ही विश्व का आर्य बनना है। तात्पर्य यह है कि व्यापकता की दृष्टि से हमारे विचार का जो विषय है वह सम्पूर्ण विश्व होते हुए भी केवल मानव समुदाय तक ही सीमित है। मनवेतर चेतन जगत अथवा जड़ जगत हमारे विचार का क्षेत्र नहीं। मानव ही सही, पर क्या हमें मानव मात्र को आर्यसमाजी अथवा आर्यसमाज का सदस्य बनाना अभीष्ट है? हमारा सोचा समझा और सुविचारा हुआ उत्तर ‘न’ में ही होगा। विश्व के आर्य बनने से हमारा तात्पर्य यह कदापि नहीं कि हम विश्व को आर्यसमाज का सभासद बना देना चाहते हैं। यह इसलिए नहीं कि हम आर्यसमाज का विस्तार नहीं चाहते। अपितु इसलिए कि यह व्यवहारिक नहीं। कारण कि आर्य समाज का अपना एक सुनिश्चित संगठन एवं विधान है। आर्य समाज का सदस्य तो वही होगा कि जो उस संगठन से आबद्ध होगा। पर आर्य तो संगठन से आबद्ध न रहकर भी हो सकता है। फिर जहां संगठन की आवश्यक शर्तें पूरी न होतीं हों, वहां अकेला,दुकेला व्यक्ति क्या आर्य न बने? या जो अपनी आय का शतांश न दे सके अथवा निश्चित आयु सीमा की शर्त न पूरी करता हो तो क्या उसे आर्य न बनाया जाये? ऐसा तो कोई नहीं चाहेगा। स्पष्ट है कि आर्यसमाज का विस्तार चाहते हुए भी हम यह मानने के लिए तैयार नहीं कि विश्व का एक-एक मानव आर्य समाज का सदस्य बन सकता है पर यह अवश्य मान सकते हैं कि ईश्वर की कृपा और आर्यों के पुरुषार्थ से विश्व भर का मानव आर्य तो हो सकता है। अत: स्पष्ट है कि आर्य शब्द में निहित उच्च भावनाओं के अनुसार ही विश्व के मानव का श्रेष्ठ बनना ही हमारा प्रयोजन है।
विश्व का आर्य बनना आवश्यक क्यों है?
विचारणीय विषय का क्षेत्रनिर्धारण के पश्चात् सर्वप्रथम जो प्रश्न उभ कर सम्मुख आता है, वह यह है कि विश्व के आर्य बनने की आवश्यकता ही क्या है? हम यह प्रश्न इसलिए उठा रहे हैं कि हमारा विश्वास है कि जब तक हम विश्व के आर्य बनने की आवश्यकता को अच्छी तरह से नहीं समझ पायेंगे तब तक हमारे मन में कार्य की सिद्धि की लालसा जागृत िनहीं होगी। आवश्यकता की तीव्रता कार्यकी सिद्धि के लिए प्रेरित किया करती है। ’’आवाश्यकता अविष्कार की जननी है’’ इस सिद्धांतानुसार जब हमें किसी भी आवश्यकता की अतितीव्रता से अनुभूति होने लगती है तो उसकी पूर्त के लिए साधनों का भी अविष्कार कर ही लिया जाता है। अत: इस संदर्भ में यह जान लेना परम आवश्यक है कि विश्व का आर्य बनना आवश्यक क्यों है?
विश्व का आर्य बनना इसलिए आवश्यक है कि इसी में विश्व का कल्याण निहित है। जब जगत में दुर्जनों का बाहुल्य होगा तो सर्वत्र अशान्ति कलह और विद्वेष का साम्राज्य होगा। विपरीत इसके जब विश्व में सज्जनों का बााहुल्य होगा तो सर्वत्र शान्ति, प्रीति और सुनीति का साम्राज्य होगा। आर्य कहते ही श्रेष्ठ एवं सज्जन को है।  जब विश्व भर के मानव सभ्य,श्रेष्ठ,कुलीन और सज्जन होंगे तो फिर अशान्ति,कलह और विद्वेष के लिए अवकाश कहां है? विश्व की समस्त समस्याओं का एकमात्र समाधान विश्व के आर्य बनने में ही है। आज विश्व में जो अराजकता,अशान्ति, कलह,क्लेश,विद्वेष भय तथा अविश्वास का वातावरण व्याप्त है, उन सब का मूल कारण मानव में व्याप्त दानवता अथवा अनार्यत्व ही है। इसी अनार्यत्व के कारण ही आज संसार संतापो,चिन्ताओं,पीड़ाओं एवं दु:खों की दावानल में जला रहा है। आज मानव,मानव से शंकित है,त्रस्त है, भयभीत है और स्थिति यहां तक आ पहुंची कि
मानव ने छोड़ दिया मानवता का जामा। प्रेम-प्यार सब खत्म हुआ रह गया मात्र ड्रामा।।
चांद-तारों का सफर करने वाला इंसान। इंसानियत को खो कर बन गया धन का भगवान।।
इन सब समस्याओं का एकमात्र समाधान विश्व के आर्य बनने में ही निहित है। अत: विश्व का आर्य बनना अत्यन्त आवश्यक है। सत्य जानिये जितना जल्दी विश्व आर्य बनेगा उतनी जल्दी यह स्वर्ग की छटा बिखेरेगा। स्पष्ट है कि धरा को सुख शान्ति से जीवन-यापन करने के लिए विश्व का आर्य बनना अत्यन्त आवश्यक है।
विश्व का आर्य बनना इसलिए भी आवश्यक है कि यह वेद का आदेश है। वेद कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम् के उद्घोष द्वारा मानवमात्र को यह आदेश देता है कि विश्व को आर्य बनाता चले। अत: वेद ईश्वरीय वाणी है। वेद की आज्ञाएं ईश्वर की आज्ञाएं हैं। ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करना परम कर्तव्य एवं पुनीत धर्म है जबकि अवज्ञा महापातक एवं घोर पाप है। अत: इस महापातक एवं घोर पाप से बचने के लिए विश्व को आर्य बनाना परम आवश्यक है।
आर्य कौन?
विश्व को आर्य बनाने का कोई उपाय सुझाने से पूर्व यह बतला देना भी आवश्यक समझते हैं कि आर्य कहते किसे हैं? यह इसलिए कि आर्य शब्द को ठीक से न समझने के कारण लोग आर्य नहीं बन रहे। आर्य बनने का अर्थ किसी धर्म,सम्प्रदाय या मत-मतान्तर को अपनाना नहीं है क्योंकि आर्य शब्द स्वयं भी किसी धर्म, जाति एवं सम्प्रदाय का बोधक नहीं है। आर्य शब्द का अर्थ श्रेष्ठ है। विस्तार में कहें तो श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव वाले व्यक्ति को आर्य कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से ही पुनीत ‘आर्य’ शब्द श्रेष्ठ मानव के अर्थों में प्रयुक्त होता चला आया है और इसी का विलोम शब्द ‘अनार्य’ एक अपशब्द एवं अभद्रता का परिचायक है। राम कृष्ण आदि हमारे सभी महापुरुष आर्य ही थे। रावण,कंस आदि को अनार्य कहा जाता था। यह इसलिये कि वह गुण-कर्म-स्वभाव से पतित हो चुके थे। पता नहीं लोग आज भी आर्य जैसे महान व पवित्र शब्द से क्यों चिढ़ते हैं? उनसे पूछा जाय कि इसमें साम्प्रदायिकता की गंध कहां से आ गई? और तो और स्वये अपने को वेदों का अनुयायी मानने वाले हमारे सनातन धर्मी भाई भी आर्य शब्द से चिढऩे लगे हैं। हिन्दू शब्द से चिपटे ये सनातनधर्मी यह बात भूल गए कि इनके पूर्वज स्वयं को आर्य कहलवाने में अपना गौरव मानते थे। हिन्दू शब्द तो साम्प्रदायिक हो सकता है परन्तु आर्य शब्द नहीं। आर्य विशुद्ध मानवतावादी शब्द है। संकीर्ण मानसिकता से कोसों दूर आर्य को अपनाने में लोग संकोच क्यों करते हैं? इसीलिए आज हिन्दू एवं आर्य पिछड़े हुए हैं। आश्चर्य तो तब होता है कि जब हम स्वामी विवेकानन्द,महात्मा गांधी और डॉ. राधाकृष्णन जैसे महान विभूतियों द्वारा हिन्दू और हिन्दुत्व की बात करने पर उन्हें कोई भी साम्प्रदायिक नहीं कहता।
इसी तरह आधुनिक युग में मानव कल्याण की क्रांति की मशाल लिए हुए महर्षि दयानन्द प्रथम महामानव के रूप में आए जिन्होंने इस भूले बिसरे किन्तु महान आर्य शब्द की ओर संसार का ध्यान आकृष्ट किया। उन्होंने यह उदघोष किया ‘‘गुणभ्रष्ट तो हम हुए नाम भ्रष्ट तो न हों’’। पर महर्षि की बातों को सुन कौन रहा है। आज आर्य समाज के दिग्गज भी हिन्दू और हिन्दुत्व का राग अलापने लगे हैं जबकि योगीराज अरविन्द ने कहा था कि मानवीय भाषा के सम्पूर्ण इतिहास में इस आर्य शब्द जैसा महान और उच्च शब्द नहीं मिलता। पर इस पर ध्यान कौन दे? योगी अरविन्द ने आर्य शब्द की महिमा का बखान बढ़ चढ़ कर नहीं किया है बल्कि उसकी असलियत से लोगों को परिचित कराया है। इस आर्य शब्द में इतने गुणों का समावेश है कि जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता, फिर वर्णन करना तो दूर रहा। ‘‘अर्यते सततं चार्ते:’’ इस स्मृति वचनानुसार आर्य वह है कि जो पीडि़तों की सहायता के लिए सदैव स्वत: ही पहुंच जाया करता है और ‘‘आराद् याति इति आर्य:’’अर्थात जो जितेन्द्रिय है वह आयै है। निरुक्त्कार ईश्वर पुत्रको आर्य कहता है तो गौत्म धर्म-सूत्रकार सदाचारी को। तात्पर्य है कि वेद का यह पावन पुनीत शब्द अपने गर्भ में नाना अर्थों और गुणों को समेटे हुए हैं। फिर भी विश्व इस महान शब्द से अपरिचित रहे-यह खेद का विषय है। अत: विश्व को आर्य बनाना आवश्यक है तो विश्व को इस अलौकिक शब्द से भली-भांति परिचित ही न कराया जाए बल्कि सभी के मन में अच्छी तरह से बैठा दिया जाए।
अब बाधा कहां है?
यह प्रश्न बहुत गंभीर है एवं उचित समाधान चाहता है। सबसे पहले तो हम यह बताना चाहते हैं कि हमने चाहा ही नहीं और जब चाहा ही नहीं तो इस दिशा में कोई प्रयत्न करने का सवाल ही नहीं उठता। यहां तक कि हम लोगों को आर्य बनने का महत्व तक भी ठीक ढंग से नहीं समझा सके। आर्य, श्रेष्ठ व्यक्ति अथवा नेक इन्सान को कहते हैं। नेक इन्सान बनना बुरी बात नहीं है। वेद भी ‘‘मनुर्भव’’ के सन्देश द्वारा हमें नेक इसन अर्थात मनुष्य अथवा आर्य बनने की बात कह रहा है। पर हम मनुष्य न बनकर हिन्दू,मुस्लिम,सिख,इसाई,बौध, जैन, पारसी आदि सम्प्रदायवादी बन बैठे। और पिुर अपने-अपने सम्प्रदाय को बढ़ाने और दूसरे सम्प्रदायों को मिटाने पर तुल गये। यद्यपि अल्लामा इकबाल ने कहा था ‘‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’’ पर वास्तविकता यह है कि बैर-विरोध तथा वैमनस्यता आदि सभी मजहब के कारण ही होते हैं। विश्व में जितना रक्तपात मजहब के नाम पर हुआ है उतना किसी अन्य पर नहीं हुआ। आज भी विश्वव्यापी आतंकवाद के पीछे मजहब ही तो कार्य कर रहा है। वेद ही एकमात्र ऐसा ज्ञान है जो सम्प्रदायवाद से बचा हुआ है। इसका कारण यह है कि वेद का ज्ञान सृष्टि के आदि में उस समय दिया गया जब किसी मत या पंथ का उदय ही नहीं हुआ था। यदि विश्व को साम्प्रदायिकता की अग्नि से बचाना है तो हमें सम्प्रदायों के जन्म के पूर्व की स्थिति लानी होगी अर्थात वैदिक युग में लौटना होगा। तभी विश्वबंधुत्व की भावनाएं पनप सकतीं हैं। समूचे विश्व में शांति कायम हो सकती है और तभी सच्चा भाई-चारा पनप सकता है। आज की इस विकट समस्या को देखते हुए यह जरूरी हो गया है कि हमें संसार के समक्ष वैदिक काल की विशेषताओं को बड़े ही प्रभावशाली वैज्ञानिक तरीके से रखना होगा। विश्व के प्रमुख संप्रदायों में खुली बहस करानी होगी कि विश्व में शान्ति किस प्रकार से स्थापित की जा सकती है। तभी यह साबित हो सकता है कि विश्व शान्ति का संदेश केवल वैदिक विचारधारा ही दे सकती है।
समाधान ऐसे निकल सकता है?
विश्व आर्य कैसे बने? अब इस पर मनन करना चाहिए। हम यह मानकर चलते हैं कि विश्व को आर्य बनाने का कार्य बहुत ही दुष्कर एवं कठिन है किन्तु हमारी भी सुदृढ़ मान्यता है कि कठिन कार्य भी करने से ही सरल हुआ करते हैं स्वत: नहीं। यदि हम प्रयत्न नहीं करेंगे तो कार्य स्वत: को हो नहीं जाएगा। अत: विश्व को आर्य बनाने के लिए हमें कठिनाइयों की परवाह किए बिना हमें अपने कर्तव्य पर डट जाना होगा। सबसे पहले हमें स्वयं को आर्य बनाना होगा क्योंकि हम सुधरेंगे जग सुधरेगा की कहावत चरितार्थ होगी और एक दिन कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम का सपना पूरा होगा। नीतिकार का कहना है:-
प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितात्मन:। किन्नु मे पशुभिस्तुल्यं किन्नु सत्पुरुषैरति।।
अर्थात नित्य प्रति हम आत्म-निरीक्षण के द्वारा यह जांच-पड़ताल करें और देखें कि हम मानव तो ही हैं कहीं दानव तो नहीं बनते जा रहे हैं। इसके लिए अपनी आत्मा को जगाना होगा और जगाए रखना ही होगा।
आर्य समाज का दायित्व
चूंकि महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना संसार में वैदिक धर्म की स्थापना द्वारा विश्व को आर्य बनाने के लिए की थी, अत: आर्यसमाज का यह दायित्व है कि वह अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अधिक सक्रिय हो। महर्षि को आर्यसमाज से बहुत आशायें एवं आकांक्षायें थीं। उन्होंने कहा था कि मेरे शिष्य सभी आर्यसमाजिक हैं। वे ही मेरे विश्वास और भरोसे के भव्य भवन हैं। उन्हें के पुरुषार्थ पर मेरे कार्योँ की पूर्ति और मनोरथों की सफलता अवलम्बित है। आर्य समाज सोचे कि वह महर्षि के मनोरथों की सफलता हेतु कितना प्रयत्नशील है? यदि आर्यसमाज महर्षि के मनोरथों की सिद्धि चाहता है तो उसे संसार में वैदिक धर्म का प्रचार करना ही होगा। क्योंकि संसार भर का धर्म एक ही है और वह है वैदिक धर्म। अन्य सभी तो मत, मजहब,पंथ अथवा संप्रदाय हैं। इन्हीं के मायाजाल में फंसकर विश्व आर्य नहीं बन पा रहा है।
महर्षि इन मतों-पंथों के रगड़े-झगड़े मिटाने को आये थे। आर्य समाज को भी इन झगड़ों से ऊपर उठकर विशुद्ध मानवतावादी दृष्टिकोण के अपनाते हुए विशुद्ध धर्म का प्रचार करना चाहिए। आर्य समाज को अपना प्रचार कम,वेद का अधिक करना चाहिए जबकि हो यह रहा कि अपनी उपलब्धियों का प्रचार अधिक और वेद का प्रचार कम हो रहा है। यदि आर्य समाज वेद के प्रचार में अधिक उत्साह दिखाता है तो आज स्थिति कुछ और ही होती।
आर्य समाज की प्रचार सामग्री अपने नेताओं के चित्रों एवं उनके दौरे आदि से पटी रहतीं हैं जो असल उद्देश्य से बहुत दूर हैं। जब वे वेद की शिक्षाओं को प्रकाशित नहीं करेंगे तो वेद का प्रचार-प्रसार कैसे होगा और महर्षि दयानन्द के मनोरथ की सिद्धि कैसे हो सकेगी।
आर्य समाजी भी सभाओं पर अपना अधिकार जमाने में ही अपनी शक्ति का व्यय करते रहते हैं, वेद के प्रचार में नहीं। फिर कोरे जयघोषों से विश्व आर्य बनने से रहा। अत: आर्य समाज को चाहिए कि वह अपनी शक्ति व्यर्थ के मुकदमेबाजी में व्यय न करके महर्षि के सपने को साकार करने में लगायें।
आर्य समाज को चाहिए कि वह स्थान-स्थान पर वेद विद्यालयों की स्थापना करें ओर वेद के उपदेशक तैयार करे। और फिर वेद की शिक्षाओं को जन-सामान्य तक पहुंचाने में जुट जाये। हमें विश्व-मानवता को वेद के झण्डे तले लाने के लिए कोई ठोस व्यवहारिक एवं कारगर योजना को कार्यान्वित करने के लिए अपने सम्पूर्ण मतभेद भुलाकर सर्वात्मना जुट जाना होगा। तभी हमें सफलता मिल सकती है। यह कार्य आर्य समाज के अतिरिक्त कोई भी नहंीं कर सकता। कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम का उदघोष आर्य समाज का ही है तो आर्य समाज का ही दायित्व बनता है कि वह आगे बढ़ कर इस ओर प्रयत्न करे तथा विश्व को आर्य बनाने में अपनी महती भूमिका का निर्वहन पूर्ण जिम्मेदारी से करे।
अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करना आर्य समाज का नियम है। यदि आर्य समाज इस नियम एवं उद्देश्य की पूर्ति में लग जाावे तो विश्व आर्य बन जायेगा। क्योंकि साम्प्रदायिकता का मूल अविद्या ही है। अविद्या के वशीभूत होकर ही मानव का दृष्टिकोण अति संकुचित एवं संकीर्ण होता जा रहा है। इसी के कारण वह साम्प्रदायिकता की ओर उन्मुख हो रहा है। विशुद्ध धर्म अविद्या के कारण ही मानव की समझ में नहीं आ पा रहा है। अत: आवश्यकता है कि अविद्या के विनाश और विद्या की वृद्धि की ओर विशेष ध्यान दिया जाए। यह सिद्धान्त पुस्तकों की जगह हमारे व्यवहार में उतर आए तभी विश्व का कल्याण होगा।

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