नवरात्र का महत्व: नवरात्र में आदिशक्ति भगवती दुर्गा की पूजा-अर्चना का सनातन धर्म में विशेष महत्व है। यद्यपि शास्त्रों में चार नवरात्रों के बारे में बताया गया है, जिनमें वासंती व शारदीय नवरात्रों की विस्तृत व्याख्या की गई है। वासंती नवरात्र चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तथा शारदीय नवरात्र का अश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरंभ होता है।
नवरात्र में महाकाली,महासरस्वती एवं महालक्ष्मी की उपासना तथा दुर्गा सप्तशती के पाठ का विधान है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्रों में भगवती पृथ्वीलोक के निवासियों के कल्याण हेतु पधारतीं हैं तथा नौ दिनों तक निवास करतीं हैं। शास्त्रों में ऐसा भी उल्लेख आया है कि भगवती के आगमन और प्रस्थान के लिए प्रत्येक वर्ष अलग-अलग सवारी हैं। लोक प्रचलित धारणाओं में इन सवारियों से उस वर्ष के फलाफल की गणना भी की जाती है। इस वर्ष माता की सवारी डोली है, जिसका फर अशुभ है। नौ दिनो में भगवती के नौ रूपों की पूजा-अर्चना होती है।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघंटेति, कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति,षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमम् कालरात्रीति, महागौरीति चाष्टमम्।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता।।
भगवती के उपयुक्त स्वरूपों के नाम वेद भगवान के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं। इसलिए ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव से सुपूजित देवी की आराधना के कारण हिंदू धर्म में नवरात्र का महत्व बढ़ जाता है।
कलश स्थापन विधि: इस वर्ष शारदीय नवरात्रारंभ दिनांक 25 सितंबर 2014 दिन गुरुवार को आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को अभिजित मुहूर्त दिन में 11 बजकर 36 मिनट से 12 बजकर 24 मिनट के बीच हो रहा है।
कलश स्थापना से पूर्व स्नान-ध्यान के बाद मिट्टी द्वारा बेदी निर्माण करके जौ वपन पूर्वक जल से परिपूर्ण मिट्टी का कलश वैदिक मंत्रों द्वारा स्थापित कर देवी का पूजन करना चाहिए। कलश पर वरुण का पूजन करके भगवती का आवाहन पूजन करना चाहिए। प्रथमत: संकल्प में देश-काल-गोत्र-प्रवर आदि का उच्चारण करके पूजा प्रारंभ की जाती है।
ऊं जयंती मंगला काली,भद्र काली,कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।।
आदि मंत्रों से षोडशोपचार पूजन कर प्रार्थना करनी चाहिए।
पाठ विधि: मुख्यत: पाठ दो तरह का होता है।
1.सामान्य पाठ: इसके अंतर्गत दुर्गा सप्तशती में लिखित तेरह अध्याय को प्रतिदिन पढ़ते हैं।
2. संपुट पाठ: इस पाठ में प्रत्येक श्लोक को संपुटित मंत्र द्वारा बांध कर पाठ करते हैं।
ऐसा विधान है कि दुर्गा सप्तशती के पाठ के पूर्व कवच,अर्गलास्त्रोत, कीलक मंत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए।
कवच: कवच पाठ का अर्थ है रक्षक। मार्कण्डेय ऋषि के अनुरोध पर स्वयं ब्रह्मा जी ने मनुष्यों की रक्षा करने वाला साधन कवच का वर्णन किया है। कवच पाठ से मान अपने आपको सुरक्षित एवं निर्भय बना लेता है।
अर्गला: अर्गला का अर्थ है वह यंत्र जिससे कपाट को बंद किया जा सके। अर्गला पाठ से भक्त माता से कहता है कि आप सभी विपदाओं से बचाने हेतु अपनी शरण में ले लें।
कीलक: कीलक मंत्र का अर्थ है मंत्रों की सिद्धि में बाधक घटकों का नाश करना।
दुर्गा सप्तशती का प्रत्येक अध्याय कथानक के रूप में है और ये सब ध्यान मंत्र से प्रारंभ होता है।
वंदे वांछित लाभाय चन्द्रार्ध शेखरम।
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्री यशश्विनीम।।
मंत्रोच्चार के बाद भगवती की मूर्ति पर पुष्प अर्पित करें और उनके स्वरूप का ध्यान करें।
नवरात्र में महाकाली,महासरस्वती एवं महालक्ष्मी की उपासना तथा दुर्गा सप्तशती के पाठ का विधान है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्रों में भगवती पृथ्वीलोक के निवासियों के कल्याण हेतु पधारतीं हैं तथा नौ दिनों तक निवास करतीं हैं। शास्त्रों में ऐसा भी उल्लेख आया है कि भगवती के आगमन और प्रस्थान के लिए प्रत्येक वर्ष अलग-अलग सवारी हैं। लोक प्रचलित धारणाओं में इन सवारियों से उस वर्ष के फलाफल की गणना भी की जाती है। इस वर्ष माता की सवारी डोली है, जिसका फर अशुभ है। नौ दिनो में भगवती के नौ रूपों की पूजा-अर्चना होती है।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघंटेति, कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति,षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमम् कालरात्रीति, महागौरीति चाष्टमम्।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता।।
भगवती के उपयुक्त स्वरूपों के नाम वेद भगवान के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं। इसलिए ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव से सुपूजित देवी की आराधना के कारण हिंदू धर्म में नवरात्र का महत्व बढ़ जाता है।
कलश स्थापन विधि: इस वर्ष शारदीय नवरात्रारंभ दिनांक 25 सितंबर 2014 दिन गुरुवार को आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को अभिजित मुहूर्त दिन में 11 बजकर 36 मिनट से 12 बजकर 24 मिनट के बीच हो रहा है।
कलश स्थापना से पूर्व स्नान-ध्यान के बाद मिट्टी द्वारा बेदी निर्माण करके जौ वपन पूर्वक जल से परिपूर्ण मिट्टी का कलश वैदिक मंत्रों द्वारा स्थापित कर देवी का पूजन करना चाहिए। कलश पर वरुण का पूजन करके भगवती का आवाहन पूजन करना चाहिए। प्रथमत: संकल्प में देश-काल-गोत्र-प्रवर आदि का उच्चारण करके पूजा प्रारंभ की जाती है।
ऊं जयंती मंगला काली,भद्र काली,कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।।
आदि मंत्रों से षोडशोपचार पूजन कर प्रार्थना करनी चाहिए।
पाठ विधि: मुख्यत: पाठ दो तरह का होता है।
1.सामान्य पाठ: इसके अंतर्गत दुर्गा सप्तशती में लिखित तेरह अध्याय को प्रतिदिन पढ़ते हैं।
2. संपुट पाठ: इस पाठ में प्रत्येक श्लोक को संपुटित मंत्र द्वारा बांध कर पाठ करते हैं।
ऐसा विधान है कि दुर्गा सप्तशती के पाठ के पूर्व कवच,अर्गलास्त्रोत, कीलक मंत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए।
कवच: कवच पाठ का अर्थ है रक्षक। मार्कण्डेय ऋषि के अनुरोध पर स्वयं ब्रह्मा जी ने मनुष्यों की रक्षा करने वाला साधन कवच का वर्णन किया है। कवच पाठ से मान अपने आपको सुरक्षित एवं निर्भय बना लेता है।
अर्गला: अर्गला का अर्थ है वह यंत्र जिससे कपाट को बंद किया जा सके। अर्गला पाठ से भक्त माता से कहता है कि आप सभी विपदाओं से बचाने हेतु अपनी शरण में ले लें।
कीलक: कीलक मंत्र का अर्थ है मंत्रों की सिद्धि में बाधक घटकों का नाश करना।
दुर्गा सप्तशती का प्रत्येक अध्याय कथानक के रूप में है और ये सब ध्यान मंत्र से प्रारंभ होता है।
प्रथमं शैलपुत्री चनवरात्र के प्रथम दिन माता शैलपुत्री की उपासना की जाती है। माता की उपासना-आराधना हेतु इस मंत्र का पाठ करें
वंदे वांछित लाभाय चन्द्रार्ध शेखरम।
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्री यशश्विनीम।।
मंत्रोच्चार के बाद भगवती की मूर्ति पर पुष्प अर्पित करें और उनके स्वरूप का ध्यान करें।