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Sunday, 25 June 2017

वर्षगांठ: कैसी थी भयावह इमरजेंसी की यादें?

वरिष्ठ लेखक और पत्रकार कुलदीप नैयर की जुबानी,‘ 24 जून 1975 की रात थी. उस वक्त मैं इंडियन एक्सप्रेस में काम करता था. किसी ने मुझे फ़ोन कर कहा कि पुलिस अख़बार की गाड़ी को दफ़्तर परिसर से बाहर नहीं जाने दे रही है, जिस पुलिस वाले से मैंने बात की उसने मुझे बताया कि इमरजेंसी लगा दी गई है एक भी अख़बार को बिना सेंसरशिप अधिकारी के इजाज़त के बिना प्रसारित करने का आदेश नहीं है। इसके बाद मुझे पता चला कि मौलिक अधिकार तक निलंबित कर दिए गए हैं। एक लाख से ज़्यादा लोगों को हिरासत में ले लिया गया था. विपक्ष के सभी बड़े नेता गिरफ़्तार कर लिए गए थे जिसमें जयप्रकाश नारायण भी शामिल थे. प्रेस का मुंह बंद कर दिया गया था। हर वक्त ख़ौफ़ का साया मंडराता रहता था. कोई अपनी ज़ुबान नहीं खोलना चाहता था नहीं तो उसके गिरफ़्तार होने का डर लगा रहता था। व्यवसायी और उद्योगपतियों को उनके उद्योग-धंधों पर छापा मार कर निशाना बनाया जा रहा था। मीडिया खोखली हो चुकी थी। यहां तक कि प्रेस कौंसिल ने भी चुप्पी लगा बैठी थी। प्रेस की आज़ादी की रक्षा करने के लिए यह सर्वोच्च संस्था थी।जस्टिस अय्यर के नेतृत्व में प्रेस कौंसिल व्यवस्था का ही एक हिस्सा बन गई थी और सूचना मंत्री वीसी शुक्ला के आदेशों का पालन कर रही थी। इमरजेंसी के दौरान सूचना-प्रसारण को लेकर शुक्ला के आदेश और प्रेस की फऱमाबरदारी को श्वेत पत्र जारी किया गया था। बहरहाल आपातकाल लगाने वालीं इंदिरा गांधी ने इस्तीफ़ा दिया। उनका शुरुआती फ़ैसला था कि वो पहले गद्दी छोड़ेंगी और फिर अवाम के बीच माफ़ी मांगने जाएंगी। ऐसा उन्होंने किया भी। वो शानदार बहुमत के साथ सत्ता में दोबारा आईं। लोगों को उनको लेकर संशय दूर हुआ लेकिन लोग, इमरजेंसी में होने वाली ज़्यादतियों और सरकार के उठाए क़दमों को लेकर भडक़े हुए थे। हालांकि उनके बेटे संजय गांधी और उनके विश्वास पात्र बंसीलाल ने राज सत्ता को अपनी जागीरदारी की तरह चलाया और किसी भी तरह की आलोचना बर्दाश्त नहीं की। आपातकाल के बाद हुए चुनाव में संजय गांधी 75000 हज़ार वोट से हार गए थे। लोगों में इंदिरा गांधी हमेशा ऐसी दिखती रही कि वो निर्दोष हैं और जो कुछ हो रहा था, उसका उनको भान नहीं था। हालात इतने बदतर हो चले थे कि ब्लैंक वारंट तक जारी किए जा रहे थे. पुलिस इसका बेजा इस्तेमाल अपने फ़ायदे के लिए कर रही थी।

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