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Saturday, 28 January 2017

रानी पद्मावती वास्तव में बहुत महान थी

टीआरपी के लिए फिल्मी पदमावती की कहानी में किया गया टूइस्ट

फिल्म पद्मावती को लेकर निर्देशक संजय भंसाली के साथ मारपीट और अभद्रता करना उचित है या अनुचित? संजय भंसाली अपनी इस फिल्म में जो दिखा रहे हैं वह इतिहास के साथ दांवपेंच चल रहे हैं या नहीं? ये सवाल आज आम जनता के सामने आ रहे हैं। संजय भंसाली को अपनी टीआरपी बढ़ाने की जगह यह स्पष्ट कर देते कि यह फिल्म वीरांगना रानी पद्मावती यानी पद्मिनी की असली कहानी नहीं बल्कि उनके जीवन को लेकर सूफी रचनाकार मलिक मोहम्मद जायसी की कल्पना पर आधारित है, तो यह पंगा हीं न होता। लेकिन ये फिल्म वाले भावनाओं का ध्यान रखे बिना हर चीज को परदे रख कर बेचने की कोशिश करते हैं ताकि उनका व्यवसाय खूब चले। यह उनकी व्यावसायिक रणनीति का हिस्सा है।
रानी पद्मावती की हकीकत क्या है? इसे जानने के लिए हमनें विकीपीडिया से सहारा लिया और वहां मिली कहानी इस प्रकार है‘पद्मावत हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत सूफी परम्परा का प्रसिद्ध महाकाव्य है। इसके रचनाकार मलिक मोहम्मद जायसी हैं। दोहा और चौपाई छन्द में लिखे गए इस महाकाव्य की भाषा अवधी है। पद्मावत यह रचना मलिक मुहम्मद जायसी की है। यह हिन्दी की अवधी बोली में है और चौपाई, दोहों में लिखी गई है। चौपाई की प्रत्येक सात अर्धालियों के बाद दोहा आता है और इस प्रकार आए हुए दोहों की संख्या 653 है। इसकी रचना सन् 947 हिजरी. (संवत् 1597) में हुई थी। इसकी कुछ प्रतियों में रचनातिथि 927 हि. मिलती है, किंतु वह असंभव है। अन्य कारणों के अतिरिक्त इस असंभावना का सबसे बड़ा कारण यह है कि मलिक साहब का जन्म ही 900 या 906 हिजरी में हुआ था। ग्रंथ के प्रारंभ में शाहेवक्त के रूप में शेरशाह की प्रशंसा है, यह तथ्य भी 947 हि. को ही रचनातिथि प्रमाणित करता है। 927 हि. में शेरशाह का इतिहास में कोई स्थान नहीं था।
जायसी सूफी संत थे और इस रचना में उन्होंने नायक रतनसेन और नायिका पद्मिनी की प्रेमकथा को विस्तारपूर्वक कहते हुए प्रेम की साधना का संदेश दिया है। रतनसेन ऐतिहासिक व्यक्ति है, वह चित्तौड़ का राजा है, पदमावती उसकी वह रानी है जिसके सौंदर्य की प्रशंसा सुनकर तत्कालीन सुल्तान अलाउद्दीन उसे प्राप्त करने के लिये चित्तौड़ पर आक्रमण करता है और यद्यपि युद्ध में विजय प्राप्त करता है तथापि पदमावती के जल मरने के कारण उसे नहीं प्राप्त कर पाता है। इसी ऐतिहासिक अर्ध ऐतिहासिक कथा के पूर्व रतनसेन द्वारा पदमावती के प्राप्त किए जाने की व्यवस्था जोड़ी गई है, जिसका आधार अवधी क्षेत्र में प्रचलित हीरामन सुग्गे की एक लोककथा है। कथा संक्षेप में इस प्रकार है:-
हीरामन की कथा
सिंहल द्वीप (श्रीलंका) का राजा गंधर्वसेन था, जिसकी कन्या पदमावती थी, जो पद्मिनी थी। उसने एक सुग्गा पाल रखा था, जिसका नाम हीरामन था। एक दिन पदमावती की अनुपस्थिति में बिल्ली के आक्रमण से बचकर वह सुग्गा भाग निकला और एक बहेलिए के द्वारा फँसा लिया गया। उस बहेलिए से उसे एक ब्राह्मण ने मोल ले लिया, जिसने चित्तौड़ आकर उसे वहाँ के राजा रतनसिंह राजपूत के हाथ बेच दिया। इसी सुग्गे से राजा ने पद्मिनी (पद्मावती) के अद्भुत सौंदर्य का वर्णन सुना, तो उसे प्राप्त करन के लिये योगी बनकर निकल पड़ा।
अनेक वनों और समुद्रों को पार करके वह सिंहल पहुँचा। उसके साथ में वह सुग्गा भी था। सुग्गे के द्वारा उसने पद्मावती के पास अपना प्रेमसंदेश भेजा। पद्मावती जब उससे मिलने के लिये एक देवालय में आई, उसको देखकर वह मूर्छित हो गया और पद्मावती उसको अचेत छोडक़र चली गई। चेत में आने पर रतनसेन बहुत दु:खी हुआ। जाते समय पद्मावती ने उसके हृदय पर चंदन से यह लिख दिया था कि उसे वह तब पा सकेगा जब वह सात आकाशों (जैसे ऊँचे) सिंहलगढ़ पर चढक़र आएगा। अत: उसने सुग्गे के बताए हुए गुप्त मार्ग से सिंहलगढ़ के भीतर प्रवेश किया। राजा को जब यह सूचना मिली तो उसने रतनसेन को शूली देने का आदेश दिया किंतु जब हीरामन से रतनसिंह राजपूत के बारे में उसे यथार्थ तथ्य ज्ञात हुआ, उसने पद्मावती का विवाह उसके साथ कर दिया।
रतनसिंह राजपूत पहले से भी विवाहित था और उसकी उस विवाहिता रानी का नाम नागमती था। रतनसेन के विरह में उसने बारह महीने कष्ट झेल कर किसी प्रकार एक पक्षी के द्वारा अपनी विरहगाथा रतनसिंह राजपूत के पास भिजवाई और इस विरहगाथा से द्रवित होकर रतनसिंह पदमावती को लेकर चित्तौड़ लौट आया।
यहाँ, उसकी सभा में राघव नाम का एक पंडित था, जो असत्य भाषण के कारण रतनसिंह द्वारा निष्कासित होकर तत्कालीन सुल्तान अलाउद्दीन की सेवा में जा पहुँचा और जिसने उससे पद्मावती के सौंदर्य की बड़ी प्रशंसा की। अलाउद्दीन पद्मावती के अद्भुत सौंदर्य का वर्णन सुनकर उसको प्राप्त करने के लिये लालायित हो उठा और उसने इसी उद्देश्य से चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। दीर्घ काल तक उसने चित्तौड़ पर घेरा डाल रखा, किंतु कोई सफलता होती उसे न दिखाई पड़ी, इसलिये उसने धोखे से रतनसिंह राजपूत को बंदी करने का उपाय किया। उसने उसके पास संधि का संदेश भेजा, जिसे रतन सिंह राजपूत ने स्वीकार कर अलाउद्दीन को विदा करने के लिये गढ़ के बाहर निकला, अलाउद्दीन ने उसे बंदी बना कर दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया।
चित्तौड़ में पदमावती अत्यंत दु:खी हुई और अपने पति को मुक्त कराने के लिये वह अपने सामंतों गोरा तथा बादल के घर गई। गोरा बादल ने रतनसिह राजपूत को मुक्त कराने का बीड़ा लिया। उन्होंने सोलह सौ डोलियाँ सजाईं जिनके भीतर राजपूत सैनिकों को रखा और दिल्ली की ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचकर उन्होंने यह कहलाया कि पद्मावती अपनी चेरियों के साथ सुल्तान की सेवा में आई है और अंतिम बार अपने पति रतनसेन से मिलने के लिये आज्ञा चाहती है। सुल्तान ने आज्ञा दे दी। डोलियों में बैठे हुए राजपूतों ने रतनसिंह राजपूत को बेडिय़ों से मुक्त किया और वे उसे लेकर निकल भागे। सुल्तानी सेना ने उनका पीछा किया, किंतु रतन सिंह राजपूत सुरक्षित रूप में चित्तौड़ पहुँच ही गया।
जिस समय वह दिल्ली में बंदी था, कुंभलनेर के राजा देवपाल ने पद्मावती के पास एक दूत भेजकर उससे प्रेमप्रस्ताव किया था। रतन सिंह राजपूत से मिलने पर जब पद्मावती ने उसे यह घटना सुनाई, वह चित्तौड़ से निकल पड़ा और कुंभलनेर जा पहुँचा। वहाँ उसने देवपाल को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा। उस युद्ध में वह देवपाल की सेल से बुरी तरह आहत हुआ और यद्यपि वह उसको मारकर चित्तौड़ लौटा किंतु देवपाल की सेल के घाव से घर पहुँचते ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। पद्मावती और नागमती ने उसके शव के साथ चितारोहण किया। अलाउद्दीन भी रतनसिंह राजपूत का पीछा करता हुआ चित्तौड़ पहुँचा, किंतु उसे पद्मावती न मिलकर उसकी चिता की राख ही मिली।
इस कथा में जायसी ने इतिहास और कल्पना, लौकिक और अलौकिक का ऐसा सुंदर सम्मिश्रण किया है कि हिंदी साहित्य में दूसरी कथा इन गुणों में ‘पद्मावत’ की ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकी है। प्राय: यह विवाद रहा है कि इसमें कवि ने किसी रूपक को भी निभाने का यत्न किया है। रचना के कुछ संस्करणों में एक छंद भी आता है, जिसमें संपूर्ण कथा को एक आध्यात्मिक रूपक बताया गया है और कहा गया है कि चित्तौड़ मानव का शरीर है, राजा उसका मन है, सिंहल उसका हृदय है, पदमिनी उसकी बुद्धि है, सुग्गा उसका गुरु है, नागमती उसका लौकिक जीवन है, राघव शैतान है और अलाउद्दीन माया है; इस प्रकार कथा का अर्थ समझना चाहिए। किंतु यह छंद रचना की कुछ ही प्रतियों में मिलता है और वे प्रतियाँ भी ऐसी ही हैं जो रचना की पाठपरंपरा में बहुत नीचे आती है। इसके अतिरिक्त यह कुंजी रचना भर में हर जगह काम भी नहीं देती है। उदाहरणार्थ गुरु-चेला-संबंध सुग्गे और रतनसेन में ही नहीं है, वह रचना के भिन्न भिन्न प्रसंगों में रतनसेन-पदमावती, पदमावती-रतनसेन और रतनसेन तथा उसके साथ के उन कुमारों के बीच भी कहा गया है जो उसके साथ सिंहल जाते हैं। वस्तुत: इसी से नहीं, इस प्रकार की किसी कुंजी के द्वारा भी कठिनाई हल नहीं होती है और उसका कारण यही है कि किसी रूपक के निर्वाह का पूरी रचना में यत्न किया ही नहीं गया है। जायसी का अभीष्ट केवल प्रेम का निरूपण करना ज्ञात होता है। वे स्थूल रूप में प्रेम के दो चित्र प्रस्तुत-करते हैं । एक तो वह जो आध्यात्मिक साधन के रूप में आता है, जिसके लिये प्राणों का उत्सर्ग भी हँसते हँसते किया जा सकता है; रतनसेन और पदमावती का प्रेम इसी प्रकार का है । रतनसेन पदमावती को पाने के लिये सिंहलगढ़ में प्रवेश करता है और शूली पर चढऩे के लिये हँसते हँसते आगे बढ़ता है; पदमावती रतनसेन के शव के साथ हँसते हँसते चितारोहण करती है और अलाउद्दीन जैसे महान सुल्तान की प्रेयसी बनने का लोभ भी अस्वीकार कर देती है। दूसरा प्रेम वह है जो अलाउद्दीन पदमावती से करता है। दूसरे की विवाहितापत्नी को वह अपने भौतिक बल से प्राप्त करना चाहता है। किंतु जायसी प्रथम प्रकार के प्रेम की विजय और दूसरे प्रकार के प्रेम की पराजय दिखाते हैं। दूसरा उनकी दृष्टि में हेय और केवल वासना है; प्रेम पहला ही है। जायसी इस प्रेम को दिव्य कहते हैं।

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