उत्तर प्रदेश के चुनाव सभी पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण हैं। ासभी दल साम-दाम-दंड और भेद का रास्ता अपना कर अपनी सरकार बनाने के लिए एड़्ी से चोटी तक का जोर लगा रहे हैं। भाजपा जहां मोदी के नोटबंदी, गरीबों की सेवा, अब हाईटेक चुनाव प्रचार के साथ फिल्मी स्टारों से प्रचार करवाने जैसे उपाय करके अपना निशाना साध रही है। वहीं बसपा अपना दलित-मुस्लिम कार्ड खेल कर उत्तर प्रदेश की सत्ता पर कब्जा करना चाहती है। बसपा की सोशल इंजीनियरिंग यह है कि मुस्लिम-दलित वोटरों के साथ प्रत्याशी के समर्थक और उसकी समाज के लोगों के वोटों का समर्थन से जीत सुनिश्चित हो जाएगी। बसपा का मानना यह है कि उसका वोट बैँक सालिड है, उसपर भ्रष्टाचार,नोटबंदी, जाति-पति व धर्म-कर्म का कोई असर नहीं पडऩे वाला है। बची सत्तारूढ़ पार्टी समाजवादी पार्टी तो उसका अपना राज है, हालांकि पार्टी अपने 25 वर्ष के इतिहास में सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। पार्टी में विभाजन पर मुहर लगनी बाकी है। इस बीच पार्टी के रणनीतिकारो ने इस विभाजन के बाद घाटे की भरपाई के लिए अखिलेश गुट कांग्रेस,रालोद जैसे दलों का समर्थन हासिल कर विजय पाने की कोशिश में हैं। इसके अलावा भाजपा और सपा के बीच एक और चुनावी दांव चल रहा है। प्रदेश में सपा सरकार अपनी पुरानी जनकल्याण नीतियों के सहारे वोटरों को लाभ पहुंचा रहीं है। जिनकी पिछले पांच सालों में सुनवाई नहीं हुई उन मामलों को पिछली तारीख में पास करवाकर जनता को लाभ पहुंचाया जा रहा है। मसलन लोहिया ग्रामीण आवास योजना का लाभ इन दिनों खुलकर बांटा जा रहा है। प्रदेश के एक मंत्री ने महिलाओं को साडिय़ों बांटने के लिए 4500 साडिय़ां मंगवाई थी जो पहले ही पकड़ीं गईं। वहीं भाजपा ने पहले ही अपनी उज्जवला योजना के तहत ग्रामीणों को मुफ्त गैस कनेक्शन देकर लाभान्वित किया है। इस तरह से यूपी के चुनाव को अपने पाले में करने की कोशिशें की जा रहीं हैं।
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