आम आदमी की बात है, उनके लिए ब्लैक मनी का मतलब सूटकेस या बेसमेंट में छुपाकर रखा गया नोटों का बंडल है, जिसका इस्तेमाल ग़ैर क़ानूनी कामों में होता है। बहरहाल, केवल विमुद्रीकरण (डीमॉनिटाइजेशन) से ग़ैर क़ानूनी आमदनी बंद नहीं हो सकती। इससे केवल ग़ैर क़ानूनी ढंग से जमा बैंक नोट को निशाना बनाया जा सकता है, लेकिन ऐसे नोट शायद बहुत ज़्यादा नहीं होंगे। क्योंकि ऐसी आमदनी वाले लोग सूटकेस में पैसा रखने से बेहतर उपाय जानते हैं। वे इन पैसों को खर्च कर देते हैं, निवेश करते हैं, दूसरों को कर्ज़ दे देते हैं या फिर दूसरे तरीकों से उसे बदल लेते हैं। वे इन पैसों से ज़मीन जायदाद खरीदते हैं, शाही अंदाज़ में शादी करते हैं, दुबई जाकर खऱीददारी करते हैं या फिर राजनेताओं का समर्थन करते हैं।
नोटबंदी का गरीबों,मज़दूरों और पेंशन पर आधारित असहाय लोगों पर सबसे अधिक असर हो रहा है। निस्संदेह, इन लोगों के पास किसी वक्त ऐसा कुछ पैसा पास भी रहता होगा, लेकिन ब्लैक मनी के नाम पर ऐसे बचे हुए पैसों की पीछे पडऩा वैसा ही जैसा कि ऊसर में बीज बोना है। इसे ब्लैक इकॉनमी पर निर्णायक क़दम बताना तो बड़े भ्रम में पडऩा है। नोटबंदी के फ़ैसले को बढ़चढ़ कर बताने वाली सरकार इसके नुक़सान को कमतर बताने की कोशिश कर रही है। कुछ नुकसान तो साफ़ दिखाई दे रहे हैं- लंबी कतारों में लोग समय जाया कर रहे हैं, गैर संगठित क्षेत्रों में पैसों की कमी हो गई है, मज़दूरों का काम छिन गया है और कई लोगों की मौत भी हुई है। अर्थव्यवस्था पर इसके गंभीर परिणाम भी जल्द महसूस किए जाएंगे। कुछ रिपोर्टों में बताया जा रहा है कि ग्रामीण बाज़ार में मंदी महूसस की जा रही है। उदाहरण के लिए, इंदिरा गांधी इंस्टीच्यूट ऑफ़ डेवलपमेंट रिसर्च की निधी अग्रवाल और सुधा नारायण के अध्ययन के मुताबिक नोटबंदी के फ़ैसले के एक सप्ताह के अंदर कई चीज़ों की आवक मंडी में काफ़ी तेज़ी से गिरावट आई है। मंडी में कपास की आवक में 30 फ़ीसदी की कमी हुई है, जबकि सोयाबीन की आवक 87 फ़ीसदी गिर गई है। पिछले साल इस समय इस तरह की गिरावट नहीं आई थी। जब किसानों के पास नकदी की कमी होगी तो खेतिहर मज़दूर और स्थानीय कामगारों की तकलीफ़ भी बढ़ेगी। मनरेगा के मज़दूरों पर भी असर पड़ेगा। पहले से ही उनको मज़दूरी काफी देरी से मिलती रही है और मौजूदा हालात में जब बैंक स्टाफ अगले कई सप्ताह तक ये काम नहीं करेंगे तो बैंक से अपनी मज़दूरी ले पाना इनके लिए और भी कठिन होगा।
यही स्थिति सामाजिक सुरक्षा पेंशन, विधवा पेंशन,वृद्धावस्था पेंशन की होगी। ये पेंशन लाखों लोगों के लिए ङ्क्षज़ंदगी की डोर है। हाशिए पर रह रहे लोगों के लिए ये डरावनी स्थिति है।
नोटबंदी का गरीबों,मज़दूरों और पेंशन पर आधारित असहाय लोगों पर सबसे अधिक असर हो रहा है। निस्संदेह, इन लोगों के पास किसी वक्त ऐसा कुछ पैसा पास भी रहता होगा, लेकिन ब्लैक मनी के नाम पर ऐसे बचे हुए पैसों की पीछे पडऩा वैसा ही जैसा कि ऊसर में बीज बोना है। इसे ब्लैक इकॉनमी पर निर्णायक क़दम बताना तो बड़े भ्रम में पडऩा है। नोटबंदी के फ़ैसले को बढ़चढ़ कर बताने वाली सरकार इसके नुक़सान को कमतर बताने की कोशिश कर रही है। कुछ नुकसान तो साफ़ दिखाई दे रहे हैं- लंबी कतारों में लोग समय जाया कर रहे हैं, गैर संगठित क्षेत्रों में पैसों की कमी हो गई है, मज़दूरों का काम छिन गया है और कई लोगों की मौत भी हुई है। अर्थव्यवस्था पर इसके गंभीर परिणाम भी जल्द महसूस किए जाएंगे। कुछ रिपोर्टों में बताया जा रहा है कि ग्रामीण बाज़ार में मंदी महूसस की जा रही है। उदाहरण के लिए, इंदिरा गांधी इंस्टीच्यूट ऑफ़ डेवलपमेंट रिसर्च की निधी अग्रवाल और सुधा नारायण के अध्ययन के मुताबिक नोटबंदी के फ़ैसले के एक सप्ताह के अंदर कई चीज़ों की आवक मंडी में काफ़ी तेज़ी से गिरावट आई है। मंडी में कपास की आवक में 30 फ़ीसदी की कमी हुई है, जबकि सोयाबीन की आवक 87 फ़ीसदी गिर गई है। पिछले साल इस समय इस तरह की गिरावट नहीं आई थी। जब किसानों के पास नकदी की कमी होगी तो खेतिहर मज़दूर और स्थानीय कामगारों की तकलीफ़ भी बढ़ेगी। मनरेगा के मज़दूरों पर भी असर पड़ेगा। पहले से ही उनको मज़दूरी काफी देरी से मिलती रही है और मौजूदा हालात में जब बैंक स्टाफ अगले कई सप्ताह तक ये काम नहीं करेंगे तो बैंक से अपनी मज़दूरी ले पाना इनके लिए और भी कठिन होगा।
यही स्थिति सामाजिक सुरक्षा पेंशन, विधवा पेंशन,वृद्धावस्था पेंशन की होगी। ये पेंशन लाखों लोगों के लिए ङ्क्षज़ंदगी की डोर है। हाशिए पर रह रहे लोगों के लिए ये डरावनी स्थिति है।
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