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Thursday, 22 December 2016

पैसे नहीं थे, पति का शव ट्रेन में छोड़ दिया

प्रवासी मजदूर की दुखभरी कहानी

बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम में प्रसारित दुखभरी कहानी के अनुसार सरोजिनी अपने बीमार पति के साथ आंध्र प्रदेश से ओडिशा के रायपुर लौट रही थीं, रास्ते में पति की तबीयत और बिगड़ गई और उनकी मौत हो गई। आंसुओं से डबडबाती आंखों और रूंधी हुई आवाज़ में सरोजिनी बेबसी के उस पल को याद करते हुए कहती हैं, बिलकुल अनजान जगह और मैं अकेली अनपढ़ औरत, उस पर तीन छोटे छोटे बच्चे,खाने तक के पैसे नहीं थे. कहाँ जाती? क्या करती? किससे मदद मांगती? छाती पर पत्थर रख कर मुझे पति का शव ट्रेन में ही छोडक़र बच्चों के साथ रायपुर जाने वाली गाड़ी में बैठना ही पड़ा। फ़ोन पर सरोजिनी ने किसी तरह घरवालों को सूचना दी जुगल के बड़े भाई नील और एक रिश्तेदार रायपुर जाकर उन्हें और बच्चों को गांव ले गये।
नील ने बताया कि एक रिश्तेदार को जुगल का शव वापस लाने के लिए महाराष्ट्र में नागपुर भेजा गया लेकिन उसे धक्के खाने के बाद कोई सूचना नहीं मिल पाई और ख़ाली हाथ वापस आना पड़ा।
बाद में महाराष्ट्र में रेलवे पुलिस सुपरिटेंडेंट शैलेष बलकावडे ने नागपुर में स्थानीय पत्रकार संजय तिवारी को बताया कि आंध्र प्रदेश से आनेवाली एक ट्रेन में एक शव मिला था। उन्होंने कहा कि पोस्टमॉर्टम में मौत की वजह स्वभाविक बताया गया, और दिन बाद शव को दफऩा दिया गया। पुलिस अधिकारी का कहना था कि ऐसे शवों को दफऩाया इसलिए जाता है कि ताकि अगर बाद में कोई शव मांगने आए तो उसे खोदकर फिर से निकाला जा सके। शव न मिलने की वजह से जुगल का अंतिम संस्कार तो नहीं हो पाया, लेकिन बुधवार को हिन्दू रीतियों के अनुसार दसवें की रस्म पूरी की गई। ओडिशा के हज़ारों लोगों की तरह नुआपाड़ा जिले के गन्डामेर गांव में रहनेवाले 29 वर्षीय जुगल नाग अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ आंध्र प्रदेश के पेडापल्ली के ईंट भ_े में काम करने गए थे। लेकिन वे कुछ दिन बाद बीमार पड़ गए तो भ_े वाले ने उन्हें टिकट कटवाकर ट्रेन में बिठा दिया, उनके पास जो थोड़े बहुत पैसे थे वह रास्ते में ख़त्म हो गए। हर साल खेतों में कटाई का काम समाप्त होने के बाद नुआपाड़ा, कालाहांडी और बोलांगीर जिलों के लाखों खेतिहर मज़दूर लगभग छह महीनों के लिए आंध्र प्रदेश और अन्य राज्यों के ईंट भ_ों में काम करने जाते हैं और अप्रैल-मई में वापस आ जाते हैं।अधिकांश अपने पूरे परिवार के साथ बाहर जाते हैं. सारी सरकारी कोशिशों के बावज़ूद दादन के नाम जाने जाने वाली यह प्रथा पिछले कई दशकों से इसलिए चली आ रही है कि नवंबर से अप्रैल तक के छह महीने में इन लोगों को अपने इलाक़े में काम नहीं मिलता। नरेगा में काम मिलता भी है तो ये लोग दादन जाना पसंद करते हैं क्योंकि इसमें उन्हें एकमुश्स्त 20 से 40 हज़ार रूपए तक मिल जाते हैं जिसके एवज़ में उन्हें छह महीने काम करना पड़ता है। पैसा उन्हें बाहर जाने से पहले ही मिल जाता है कार्यस्थल पर उन्हें केवल रहने, खाने को ही मिलता है, कोई मज़दूरी नहीं। जुगल नाग को बिचौलिए  से 40,000 रुपये एडवांस मिले थे, जिसमें से वे और उनका परिवार 30,000 रूपए का काम कर चुके थे।

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