चक्रव्यूह में रहकर ही किला फतेह करने की जुगत में है वो
देश की सियासत की बात की जाए तो अवश्य ही यूपी की राजनीति की बात होगी। उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी का जिक्र करना भी लाजिमी होगा। बात समाजवादी पार्टी की हो तो उसके कुनबे का जिक्र करना भी गैरवाजिब होगा। समाजवादी पार्टी में पिछले कुछ वर्षों से कुनबाई महाभारत चल रही है। इस महाभारत की बात कुछ अलग ही है। इसमें पिता यानी सपा सुप्रीमो यानी नेताजी मुलायम सिंह यादव की भूमिका सबसे अलग हट कर है। वह अपने बेटे को ही समय-समय पर कठघरे में खड़ा करते हैं। मुलायम सिंह अपने भाई शिवपाल सिंह यादव, अमर सिंह, आजम खान, अतीक अहमद पर बेटे से अधिक विश्वास करते हैं। सार्वजनिक मंच पर भी बेटे को फटकारने से भी बाज न आने वाले नेताजी ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी है कि बेटा अखिलेश यादव फिलहाल चक्रव्यूह में फंसा अभिमन्यु के समान है। यह महाभारत का चक्रव्यूह नहीं है। यहां अपनों से जंग है, वो भी जंग ऐसी है कि यदि जरा भी चूके तो लगातार नीचे रसातल तक लुढक़ते चले जाने के आसार हैं।चाचा शिवपाल सिंह यादव, दुर्योधन की भूमिका में हैं, ताऊ अमर सिंह कर्ण की भूमिका में हैं। पिता मुलायम सिह भीष्म पितामह की भूमिका में हैं। अकेला अभिमन्यु बनकर अखिलेश चक्रव्यूह को भेदना भी नहीं चाहता। यह बात अलग है कि वह चाल-चरित्र और नैतिकता में इन सबसे अलग जनता में इतना अधिक लोकप्रिय भी है यह अभिमन्यु कि चक्रव्यूह की रचना करने वाले धुरंधर इसे त्याग भी नहीं सकते। बच्चा जानकर सभी फटकार लेते हैं लेकिन ये नहीं जानते कि वह भी अब पिता बन कर परिवार चलाने के साथ प्रदेश की सरकार चला रहा है। समाजवादी पार्टी की यह सरकार पहली बार पूरे पांच साल चली है। इस सरकार ने प्रदेश के युवाओं को मोह लिया है। इसे कैश कराने की तैयारी चल रही है। इस बीच ताऊ अमर सिंह अपनी दूसरी पारी में सपा में लौटे हैं तो वह सीधे मुलायम सिंह के पास ही आसन जमा बैठे हैं। ऐसे में अखिलेश और उनके समर्थकों के लिए आने वाले चुनाव परीक्षा की घड़ी हैं।
आगे क्या होगा?
समाजवादी पार्टी आने वाले चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन करके सत्ता में वापसी के लिए तैयार है। अब आगे इस पार्टी और अखिलेश यादव का भविष्य क्या होगा? इस बात की झलक इस बात से मिल रही है कि जब चुनाव के लिए टिकट चाचा शिवपाल सिंह बांट रहे हैं। चाचा शिवपाल सिंह ने छांट-छांट कर अखिलेश विरोधियों को टिकट दिए हैं और आगे भी ऐसा करेंगे। ऐसी स्थिति में यदि सरकार बनती है तो सारे अखिलेश विरोधी होंगे तो उनके नाम पर मुहर लगने को लाले पड़ जाएंगे यदि नेताजी के हस्तक्षेप से ऐसा हो भी गया तो उन्हें सरकार चला पाना टेढ़ी खीर साबित होगा। अभिमन्यु की तरह वह बगावत भी नहीं कर सकते। हालांकि उनकी छवि सपा के दिग्गज नेताओं से काफी अलग और अच्छी है। जनमानस जैसा चाहता है अखिलेश यादव वैसे ही नेता हैं लेकिन उनकी कार्यशैली में अनावश्यक हस्तक्षेप जनविश्वास को तोड़ रहा है। फिलहाल यह चर्चा यहीं पर विराम लेती है।
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