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Monday, 5 December 2016

कैशलेस इकॉनमी: हमें स्वीडन की स्क्यिोरिटी सिस्टम फालो करना होगा

साइबर क्राइम से निपटने के लिए एक सख्त कानून भी बनाना होगा

कैशलेश इकॉनमी का मतलब टेक्नॉलॉजी की सहायता से लेन देन। इसमें कैश के आदान-प्रदान की कोई आवश्यकता नहीं। इस टेक्नॉलॉजी में क्रेडिट/ डेबिट कार्ड के साथ-साथ इन्टरनेट बैंकिंग, मोबाइल बैंकिंग, डिजिटल वॉलेट जैसी सुविधाएं शामिल है। हालाँकि, तमाम प्रचार के बावजूद देश के लगभग 95 प्रतिशत लोग हिस्सा आज भी कैश पर ही निर्भर है। लोगों के पास क्रेडिट/ डेबिट कार्ड जरूर हैं, किन्तु उसका प्रयोग वह लोग एटीएम से पैसा निकालने के लिए ही ज्यादा करते हैं।  सीधी खरीददारी के लिए बहुत कम उपयोग करते हैं। इसके पीछे  मुख्य कारण हैं, ं हर एक जगह प्लास्टिक मनी लेने की सुविधा नहीं होना और डेबिट/ क्रेडिट कार्ड से जुड़ी असुरक्षा की भावना है। कैशलेस इकॉनमी में जिस मोर्चे पर सर्वाधिक कार्य किये जाने की जरूरत है, वह निश्चित रूप से ऑनलाइन सिक्योरिटी ही है। कार्ड का क्लोन बना लेना, पिन चुराकर पैसे निकाल लेना या क्रेडिट कार्ड से आपकी जानकारी के बगैर ट्रांसेक्शन कर लेने जैसे फ्रॉड अब पुराने पड़ चुके हैं और कई जगह उसके साथ-साथ फिशिंग / हैकिंग के सहारे बल्क डाटा चोरी, रैन्जमवेयर जैसे खतरे, कॉल सेंटर से डाटा लीक होने जैसी वारदातें सामने आ रही हैं। 2009 में एक खबर आई थी कि भारत के कॉल सेंटरों में अपराधियों के गिरोह पैसे लेकर ब्रिटेन के क्रेडिट कार्ड होल्डर्स की जानकारियां धड़ल्ले से बेच रहे हैं। ऐसे ही 2008 में भी क्रेडिट कार्ड घोटाला हुआ था जिसमें कुल मिलाकर 609 लाख पाउंड के घपले की बात कही गई थी, फिर 2012 में मार्च के महीने में एक करोड़ क्रेडिट कार्ड खातों में सेंध की बात सामने आयी थी, जिसे लेकर क्रेडिट कार्ड कंपनी मास्टर कार्ड और वीजा ने विस्तृत जांच की थी। इसके अतिरिक्त, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से सम्बंधित, अभी पिछले ही अक्टूबर में 32 लाख डेबिट कार्ड की सुरक्षा में सेंध लगने की जो बात सामने आयी थी, उसने हर एक को हिलाकर रख दिया था।
वैश्विक स्टैंडर्ड्स की बात करें तो, कैशलेस इकॉनोमी की सिक्योरिटी के मामले में स्वीडन पहले नंबर पर है। हालाँकि, वहां बैंकों में लूट कम हुई। आंकड़ों के अनुसार, 2008 में 110 लूट हुईं जबकि 2011 में सिर्फ 16। गौरतलब है कि यह आंकड़ा 30 सालों में सबसे कम रहा, लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि यहां साइबर क्राइम्स में बढ़ोतरी आ गई। स्वीडिश नेशनल काउंसिल फॉर क्राइम प्रिवेंशन के मुताबिक साइबर बैंक फ्रॉड तेजी से बढ़े और 2011 में 20,000 पहुंच गए जबकि 2000 में यह सिर्फ 3,304 ही थे। बताते चलें कि स्वीडन को इनफॉर्मेंशन टेक्नॉलोजी में नंबर एक माना जाता है और वहां कई तरह के सिक्योरिटी मेजर्स बखूबी फॉलो किये जाते हैं। स्वीडन में इतने सिक्योरिटी मेजर्स के बाद भी जब साइबर लूट बढ़ सकती है तो भारत जैसे देश जहां अभी भी एटीएम में 15 साल पुराना ऑपरेटिंग सिस्टम यूज किया जा रहा है, इससे खतरा निश्चित रूप से बढ़ जायेगा। ऐसे में, जाहिर तौर पर साइबर क्रिमिनल्स की तादाद बढ़ेगी और लोग इसके शिकार भी होंगे। यहाँ पुन: प्रश्न उठता है कि टेक्नोलॉजी के साथ-साथ क्या कानूनी तौर पर हमारी तैयारियां उतनी पुख्ता हैं कि न्याय-अन्याय करने के प्रति सजग हो सकें। भारत के मुख्य न्यायाधीश वैसे ही जजों की कमियों का सार्वजनिक मंचों पर रोज रोना रो रहे हैं, जबकि नए सिस्टम और तकनीक के हिसाब से जजों को बड़े स्तर पर ट्रेनिंग देने की जरूर पड़ेगी। इसी कड़ी में साइबर एक्सपर्ट्स का साफ तौर पर मानना है कि भारतीय कानून रैंजमवेयर के खतरों के लिए पर्याप्त नहीं है, जबकि रैंजमवेयर का खतरा भारत में तेजी से बढ़ रहा है। गौरतलब है कि रैंजमवेयर के तहत लोगों के कंप्यूटर्स को एन्क्रिप्ट करके उसे खोलने के लिए उनसे पैसे मांगे जाते हैं। जानकारी के मुताबिक, भारत में ये खतरा दूसरे देशों के मुकाबले तेजी से बढ़ रहा है, क्योंकि यहां इसके रोकथाम के लिए कुछ पुख्ता नहीं है। ऐसे मामलों में दोषी को आसानी से बेल मिल जाती है। कानूनी जानकार कहते हैं कि आईटी ऐक्ट की धारा 66, 66्र, 66ए और 66बी फिशिंग, फर्जी ईमेल लिंक और फ्रॉड से निपटने के लिए है तो, लेकिन इसके तहत पुलिस दोषी को हिरासत में नहीं ले सकती है और इन सारे मामलों में दोषी को बेल मिल जाती है। ऐसे ही हमारे देश में डेटा सुरक्षा के लिए भी कोई ठोस कानून नहीं है, तो प्राइवेसी कानून का भी हमारे यहाँ अभाव है, जिससे कम से कम ई-ट्रांजैक्शन के दौरान कस्टमर्स इस बात को लेकर श्योर हो सकें कि वो सुरक्षित हैं। समझा जा सकता है कि इस मामले में काफी कुछ किये जाने की आवश्यकता है। 

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